गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

मौत कब बार-बार आयी है


मौत कब बार - बार  आयी है
ज़िंदगी  ही  बड़ी   हरजाई है


कमाना  पैसे  बड़ी  बात मगर
प्यार  सबसे   बड़ी  कमाई है

फला जन्मों का पुण्य होगा तो
दौलत-ए-इश्क   उसने  पाई है

आज भर पेट  वो  खाया  होगा
उसके  चेहरे  पे  ख़ुशी  छायी है

उसकी बेटी की कल ही शादी थी
बहुत  दिन  बाद  नींद पायी है

शाम को  बाँटती  है  रोटी जो
सारे  फुटपाथ  की वो  माई है

तुम्हारा लड़ना यूँ गैरों  के लिए
पवन बस ये ही  अदा  भायी है

पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८

अणु डाक – poetpawan50@gmail.comई है


ज़मीर क्या गया


ज़मीर  क्या  गया  कि ज़मीं  आसमान गया
मान की बात  क्या पूरा ही  स्वाभिमान गया

गिरना तो ठीक  मगर अपनी नज़र में गिरना
फिर तो ऐसा समझ कि जीने का सामान गया

जिसके  ख़ातिर  लड़े दुश्मन भी बेशुमार किये
वो ही  नाराज़ तो फिर जीने का अरमान गया

हो  भले  यार की महफ़िल बिना न्यौते न जा
ज़रा  भी  बेरुख़ी  हुई   कि   सम्मान  गया

कई दिन  ठहर  के लौटोगे  किसी के  घर से
सभी  घर  वाले  कहेंगे  चलो  मेहमान  गया



पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmail.com  

बुधवार, 29 अप्रैल 2020

जीना क्यों


जीना  क्यों  ये  सवाल रखे हैं
तो  सुनो  ख़्वाब  पाल रखे हैं

एक  शादी  से  परेशां  हूँ  मैं
तुमने  कितने  बवाल  रखे हैं

ये तो  चुभते  सुकून  देते भी
शब्द  कितने  कमाल  रखे हैं

हर अदा  बढ़ के एक  दूजे से
हुस्न के  कितने जाल  रखे हैं

जब भी देखो रिझाती रहती हो
तभी  डिम्पल  से गाल रखे हैं

जब से देखा है तुम्हें सच बोलूँ
बहुत  से  काम   टाल रखे हैं

तुम मिली तो लगा  जवानी है
तब से खुद को जमाल  रखे हैं

ये जो कविताएं  लिखी हैं मैंने
इसमें दुःख – दर्द  डाल रखे हैं

मौत आती  है लौट  जाती है
ख़्वाबों के  ढेरों  ढाल  रखे हैं


पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmail.com

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

समझा था गणित


समझा था गणित जिन्दगी सो वो बिखर गयी
अच्छा हुआ कि  प्यार मिला  तो  सुधर गयी

जिस ज़िन्दगी की  ख़ातिर  सारे  जतन किये
होते  जतन  ही  पूरा  ज़िन्दगी  गुज़र  गयी

जिस ज़िंदगी से मिलने को भटका मैं उम्र भर
फिर  मौत  मिली  बोली  ज़िंदगी गुज़र गयी

भीतर  थी  मेरे  ज़िन्दगी  ढूंढा  किया बाहर
ज सच  पता  चला  तो  वो दूजे  नगर गयी

ज़िंदगी  से  ही  पता  पूछा   किया  उसका
चुपचाप एक  रोज  किसी   और  घर  गयी

अपने  को  खर्च  करना  हंसते  हुए  पवन
फिर ज़िन्दगी  कहेगी  ज़िन्दगी  संवर  गयी

पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmail.com  

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

उसको लगा कि वक़्त


उसको लगा कि  वक़्त  बिखरने  का आ गया
दिल ने कहा कि  वक़्त सिमटने  का आ गया

झगड़े  से   बराबर  ही   डरता  रहा  हूँ  मैं
ये प्यार क्या हुआ कि दम लड़ने का आ गया

जीने  का   हुनर   सीखते  वर्षों  गुज़र  गये
तू क्या मिली सलीका भी मरने का आया गया

तू  कल  गयी  तो  आज  ही ख्याल आया ये
लगाने  लगा  है  वक़्त  गुज़रने  का आ गया

मैंने कहा कि खुद से कि भरोसा  मुझे खुद पर
फिर दिल ने कहा  वक़्त  है बढ़ने का आ गया

जिस पर  फ़िदा थे  सब वो मेरे पास आ गयी
अब दोस्तों का  वक़्त भी  जलने का आ गया

जिसको था चाहा उसको उसकी चाह मिल गयी
फिर दिल को लगा  वक़्त संवरने का आ गया

माँ बाऊ  जी ने हाथ जो हँस  कर रखा सर पे
हिय  बोल पड़ा  वक़्त  निखरने  का आ गया



पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmail.com    

रविवार, 26 अप्रैल 2020

नभ मेरा है शिरोभूषण


नभ  मेरा है   शिरोभूषण
वर्षा  से   अनुबंध   मेरा
जिस हुताशन  से डरे जग
वो ही है  मणिबन्ध  मेरा

हिम हमारे पूज्य  का  गृह
शीत   से   संबंध   मेरा
राष्ट्र पर बलिदान सब कुछ
प्रेम    पर   तटबंध  मेरा

रवि तो घर  के  देवता हैं
क्या  करेगा  फिर अन्धेरा
जिस धरा के राम  प्रेरणा
वहाँ  होगा   धर्म  प्रेरणा

शारदा  के   पुत्र   हैं हम
वेद  की   रखते हैं  माला
काले – काले   अक्षरों  से
ज्ञान  का  फैला   उजाला

याद  है  ये  वो है भारत
शार्दुल  के  दांत  गिनता
सबसे पहले  द्वार जिसके
सविता का प्रकाश भिनता

संस्कृति    उदात्त  ऐसी
जग के सुख  की कामना
जगत है  परिवार  अपना
ऐसी   अपनी     भावना

तिस पे  भी   घमंड  वश
करे जो  कोई  प्रहार   है
ऐसे में ये  शिव का  देश
फिर    करे   संहार   है


पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmail.com     
  

स्मृतियों का दुःख



फूस की छप्पर
जो टपकती थी बारिश में,
माटी की दीवार
जो झरती रहती थी
साल-दर-साल !
घर का खपरैल और नरिया
जो अक्सर बंदरों की धमाचौकड़ी
या बिल्लियों की लड़ाई में
जाता टूट !
रसोई की पपड़ी छोड़ती माटी
कड़वी नीम की दातून
जाड़े में उठाना गाय का गोबर
नंगे पाँव घुटने तक पानी में
बारिश से भीगते हुए
खेत में रोपना धान
सब लगता था बुरा
दिलाता था पिछड़ेपन का आभास !
रोज सुबह जब पीनी पड़ती
गुड़ की काली चाय
अपने बाऊ जी पर आता
खीझ के साथ विकट क्रोध
पड़ोसियों के बाऊ जी की तरह
क्यों नहीं हैं साहब,
पटवारी, लेखपाल या परधान
क्यों नहीं करते सरकारी नौकरी
क्यों करते हैं किसानी ?
क्यों हैं गरीब ?
और डूब जाता दुःख में
सहपाठी को लेमनचूस चूसते
देखता हुआ उदास
उसी क्षोभ और दुःख ने छुड्वाया गाँव
अब जब उम्र का
एक बड़ा हिसा बीत जाने पर
लौटता हूँ जब भी गाँव
खोजता हूँ बड़ी शिद्दत से
वही दुःख के सामान
वही खपरैल की छत
वही माटी की झरती दीवार
वही गुड़ की काली चाय
वही लेपी हुई पपड़ियों भरी रसोई
उन्हें न पाकर हो जाता हूँ और दुखी
हाँ, एक दिन मिली थी गाँव में
किसी के घर गुड़ की चाय
बड़ी खुशी मिली थी.
पर उन्होंने पिलाई थी
सकुचाते हुए और शर्म से

पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmail.com
   
  


शनिवार, 25 अप्रैल 2020

महान व्यवस्था



जहाँ न्याय की बात होती है
जहाँ समानता की बात होती है
जहाँ बात-बात पर ईश्वर की
प्रतिज्ञा ली जाती जाती है
जहाँ अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता का गान
प्रतिक्षण गाया जाता है
जहाँ गरीब शब्द के लिए
मुखिया व्यक्त करता है दया
देता है भाषण और
करता है अनेक घोषणाएँ
जिन्हें गरीब न कभी सुन पाता है
और न कभी जान पाता है कि
एक व्यवस्था उसके बारे में
इतना सोचती और प्रयास करती है
वह कभी झोपड़ी, कभी फुटपाथ पर
किसी अनजान बीमारी या भूख से
मर जाता है, उसी एक व्यवस्था के कारण
उसका कोई समाचार भी नहीं बनता
और उस व्यवस्था को
सबसे महान और बड़ी व्यवस्था बताकर
जोड़ा जाता है दिन प्रति दिन
देश की महानता के साथ


पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmail.com