रविवार, 21 जनवरी 2018

देह के बाहर अंदर


एक मैं हूं अकेला 
मैं लोग नहीं हूं
मैं तो बस, "मैं हूं"
मुझे कुछ भी, कहीं भी
नहीं है ताकना - झांकना
मैं तो अंदर ही रहता हूं
इस देह के अंदर ही
मेरा आलय ही नहीं ,जग है
इस देह के बाहर ,मेरा
कोई अपना घर नहीं
याद नहीं आता मैं
कब से हूँ इस देह में
या जब से यह देह है
तब से , मैं भी हूं
आज - कल ये देह
अनजानी सी हरकतें
अकस्मात करती है
बदलाव आ रहा है
तेज से भी तेज
घबरा जाता हूं ,"अचानक"
लगता है पूरा भूमंडल
हिल रहा है "भयानक"
भूकंप के कंपन से,
मैं बाहर ताक-झाँक
नहीं करना चाहता
न मैं विशिष्ट होना चाहता हूं
मैं, बस इस देह की दुनिया से
बाहर, सीधे बाहर
आना चाहता हूं .
मेरा कोई आलय नहीं है
इस देह से बाहर
पर अब और सहन नहीं
इसकी अनावश्यक,
असहनीय दुनिया,
इस देह की परछाई
से भी दूर और
अपने पास आना चाहता हूं
भले ही मेरा बाहर कोई घर नहीं,
बनाऊंगा नया कुछ घर
या घर जैसा, जो भी हो,
बस बाहर आना चाहता हूं।

पवन तिवारी
संपर्क-7718080978

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