बुधवार, 22 नवंबर 2017

जनतंत्र बोल रहा है









जनतंत्र बोल रहा है
गड्ढ़ों में बिलखती सड़कें बोल रही हैं
अपने ही बदन की बदबू से परेशान कचरे
दबे हुए सांप की तरह फुसफुसा रहे हैं
यातायात में फँसे वाहन की विवशताएँ
फुरफुराते हुए कुछ तो बोल रही हैं
प्रदूषण से परेशान हवा रो-रो कर डोल रही है
तालाब में मच्छरों से घिरा बेबश
सडांध को झेलता पानी कौन जाने
कुलबुला रहा है कि बोल रहा है
रसायनों से पीड़ित बजबजाते
काले हो गये नाले रेंग रहे हैं
शायद वे अपना दुखड़ा बोल रहे हैं
एक अजीब गंध से परेशान सरकारी अस्पताल
न डोल रहे,न बोल रहे, बस घिंघिया रहे हैं
रिश्वत से परेशान वर्षों से दबी फाइलें
जिनकी मजबूरी का बेसाख्ता फायदा उठाकर
दीमक नोच रहे हैं
वो बस चीखने की कोशिश में मर रही हैं
युवा परेशान है और बेरोजगारी
छाती पीटकर मुनादी कर रही है
फिर भी कोई हलचल नहीं
और वो पछाड़े खाकर गिर रही है
असुरक्षा की आशंका से सुरक्षा को शंका है
सुरक्षा की ये हालत देख बेटियाँ भयभीत हैं
और कुछ उंगली पर नाचने वाले लोग
नारा दे रहे हैं, इण्डिया गेट पर चिल्ला रहे हैं

जनतंत्र बोल रहा है 

पवन तिवारी 
सम्पर्क - 7718080978
poetpawan50@gmail.com

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