गुरुवार, 5 अक्टूबर 2017

धूप - कविता





















सुबह उठा खिड़की ज्यों खोला 
धूप मेरे घर में घुस आई
था उदास घर मेरा जो
चमक उठा घर धूप जो आई

ठण्ड से मेरे बुझे बदन को
धूप ने आकर कर दी सेंकाई
झुके रोम सब खड़े हो गये
धूप की प्यारी गर्मी पाई

कई दिनों पर मिली जो धूप
चेहरे खिलकर हो गये धूप
जाड़े में महाऔषधि लागे
सबको प्यारी लगती धूप

यही ग्रीष्म में मिलें दोपहर
तब दुश्मन लगती है धूप
छाँव ढूंढते धूप से बचते
कहते बड़ी प्रचंड है धूप


पवन तिवारी
सम्पर्क -  7718080978
poetpawan50@gmail.com



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