शुक्रवार, 28 जून 2024

छूटना


 

 

गाँव छूटा

सपनों की ख़ातिर !

शहर बसा,

अपनों की ख़ातिर !

अपने छूटे,

पैसों की ख़ातिर !

फिर पैसा छूटा,

संबंधों ख़ातिर !

फिर सब छूटा,

जीवन के लिए !

फिर जीवन छूटा,

मृत्यु के लिए !

तो इस तरह

सब छूट गया !

अब सब खाली है ;

न सपने, न अपने

न पैसा, न संबंध

न जीवन, न मृत्यु !

 

पवन तिवारी

२८/०६/२०२४   

 

बुधवार, 26 जून 2024

अकेलेपन का ध्वंस


 

जैसे अकेली इमारत

धीरे-धीरे होती है उदास !

जमती है धूल,

उभरती हैं पपड़ियाँ,

उभर आती हैं दरारें!

 

कभी-कभी

दरकता सा है कुछ,

शरीर पर

जमने लगती है काई,;

 

और फिर

ढहने लगता है

रुक रुक कर

कोई हिस्सा!

 

और एक दिन

भरभराकर

ढह जाती है इमारत,

 

अकेलापन

कर ही देता है ध्वंस,

कोई भी जो

अकेलेपन के साथ

अकेला है, - इसी क्रम में

होता है ध्वंस !

 

पवन तिवारी

२६/०६/२०२४ 

रविवार, 23 जून 2024

दुलहा साले

गारी लोक गीत ( अवधी / विवाह गीत )


दुलहा साले बेना, कूलर, पंखा लेबा हो,

ऊसर, परती बोला- कै ठे मंडा लेबा हो,

अपने दीदी ख़ातिर बड़का वाला घंटा लेबा हो !

 

सोना लेबा, हीरा लेबा, लेबा हीरो हंडा,

कै ठे डंडा लेबा हो,

अपने बहिनी ख़ातिर लम्बा वाला झंडा लेबा हो !


खीर खाबा, पिज्जा खाबा,

खाबा बड़का बंडा, कै ठे ठंडा लेबा हो,

अपने फूआ खातिर केतना लवंडा लेबा हो !


कार लेबा, चेन लेबा,

लेबा बड़का हंडा, कै ठे कंडा लेबा हो,

अपने मामी खातिर गंगा जी के पंडा लेबा हो !

पवन तिवारी

२३/०६/२०२४

  

शनिवार, 22 जून 2024

लोग कहते हैं -


 

लोग कहते हैं-

प्रदूषण बढ़ गया है.

लोग कहते हैं-

गर्मी बहुत बढ़ गयी है.

लोग कहते है-

अकाल पड़ गया है.

लोग कहते हैं-

पानी का जलस्तर

नीचे चला गया है.

 

लोग कितने

अनजान बनाते हैं.

लोग आन्दोलन करते हैं.

मार्च निकलते हैं.

ये वही लोग करते हैं,

जो सबसे अधिक

प्रकृति को क्षतिग्रस्त

करते हैं.


यही हैं,जिन्होंने

अपने घरों में

सबसे बड़े प्रदूषण

लगाए बीते हैं.

यही मोटरकार वाले,

यही शीतयंत्र और

वातानुकूलन वाले !


इन्होंने ने ही

पेड़ काटे, बाग़ उजाड़े !

खाड़ी और तालाब पाटे !

मिटटी पर कंक्रीट किये,

बोर से जल का शोषण!


और फिर

भरमाने के लिए

नैतिक होने का

स्वांग रचते हुए

ये मार्च और आन्दोलन !

क्या कहें-

बेचारे मूर्ख या धूर्त !

 

पवन तिवारी

१९ /०६/ २०२४

 

 

   

 

सोमवार, 17 जून 2024

जब तुम्हारे क़रीब होता हूँ



जब     तुम्हारे    क़रीब    होता   हूँ

सारी  ख़ुशियों   के  पास  होता हूँ

होके सब कुछ अकेलापन लगता

तुम  न   हो   तो   अकेले  रोता  हूँ

 

न   हो  तुम  तो   उदास  होता  हूँ

ज़िन्दगी    से    निराश   होता  हूँ

भीगा होकर भी सूखा सा लगता

लगता   है  जैसे  ख़ुद को ढोता हूँ

जब    तुम्हारे   क़रीब    होता   हूँ

सारी  ख़ुशियों  के  पास होता हूँ

 

देख   के  तुमको  मगन होता हूँ

प्यार    में  डूबा – डूबा   होता हूँ

आँखों  में  जुगनू उड़ने लगते हैं

जागे – जागे   ही  सपने बोता हूँ

जब   तुम्हारे   क़रीब    होता  हूँ

सारी ख़ुशियों  के पास होता हूँ

 

पवन तिवारी

१६/०६/२०२४

शुक्रवार, 14 जून 2024

सोचना



कभी सोचता हूँ

ये करुँगा, फिर

अगले क्षण-

ये नहीं, वो करुँगा !

फिर कभी सोचता हूँ ;

निश्चित करता हूँ

कल आरम्भ करुँगा !

और कल, नया विचार

उभर आता है !

ये, वो, कुछ नहीं,

जो करुँगा, ढंग का करुँगा !

और फिर-

कुछ नहीं करता !

वो कहती हैं –

तुम्हारी बुद्धि

भ्रष्ट हो गयी है!

एक जन कहते हैं-

यह भ्रमित हो गया है !

अम्मा कहती हैं–

बेटा परेशान है,

उलझन में है /

सही कौन है ?

आज – कल

यही सोच रहा हूँ /

 

पवन तिवारी

१४/०६/२०२४  

गुरुवार, 13 जून 2024

सूर्य ऐसे ढल रहा है



सूर्य   ऐसे   ढल   रहा   है

जैसे  जीवन  ढल  रहा है

हाय कुछ तो खल रहा है

हाय कुछ तो खल रहा है

 

कुछ ही दिन अनभल रहा है

बाक़ी अच्छा  कल रहा है

कुछ तो अंदर गल रहा है

हाय कुछ तो खल रहा है

 

कुछ तो अंदर  जल रहा है

अपना  कोई   छल रहा है

कुछ तो गड़बड़ चल रहा है

हाय  कुछ  तो खल रहा है

 

भारी इक - इक पल रहा है

उसका  आना  टल  रहा है

मूँग    कोई    दल    रहा  है

हाय  कुछ  तो  खल रहा है

 

पवन तिवारी

१३/०६/२०२४ 

बुधवार, 12 जून 2024

उर कहता है तुम पर



उर  कहता  है  तुम  पर   कोई  गीत  लिखूँ

शब्द कहें हैं ‘तुम’ की जगह मनमीत लिखूँ

शुरू - शुरू में  प्रेम ही सब लिखते हैं सुना

मैं  भी  क्यों  ना  शुरू - शुरू  में प्रीत लिखूँ

उर  कहता  है  तुम   पर  कोई  गीत  लिखूँ

 

और   दूसरे   गीतों   में   मैं   और   लिखूँ

समसामयिक  त्रासों  का  मैं  दौर  लिखूँ

रोजगार   की   आफ़त   भ्रष्टाचार  भी  है

क्यों  ना  पहले   पूरा   प्रेम   पुनीत लिखूँ

उर  कहता  है  तुम  पर कोई गीत लिखूँ

 

सोच  रहा  हूँ मैं  अकाल पर शोक लिखूँ

स्त्री  शोषण  पर  आवश्यक  रोक लिखूँ

दुःख  के  विषयों  का  है कोई अंत नहीं 

प्रेम  पे लिख लूँ उसमें भी मैं जीत लिखूँ

उर  कहता  है  तुम पर कोई गीत लिखूँ

 

शुरू  किया  हूँ  जो  वो पहले गीत लिखूँ

अपनी   परम्परा   अपनी   रीत  लिखूँ

लिखने  को  तो  पूरी  दुनिया लिख डालूँ

पर इस अंतिम पंक्ति में तुमको मीत लिखूँ

उर  कहता  है तुम पर  कोई  गीत लिखूँ

 

पवन तिवारी

१२/०६/२०२४

 

मंगलवार, 11 जून 2024

कटता नहीं है फिर भी



कटता नहीं है फिर भी जैसे काट रहा हूँ

समय को जैसे थोड़ा – थोड़ा बाँट रहा हूँ  

ये झुंझलाहट,  बेचैनी   कुछ  और   नहीं

इन सबके संग जैसे खुद को डाँट रहा हूँ

 

नहीं सूझता जब कुछ किस पर दोष मढूं

घिरा   हुआ  हूँ  जंजालों   से  किधर  बढूँ

तब  सारा  कुछ  प्रारब्धों पर मढ़ देता हूँ

कहता  है  तब  ह्रदय  ज़िन्दगी  और पढूँ

 

यही  अकेलेपन  में  सबके  संग  होता  है

थोड़ा बहुत ही खा पी के अक्सर सोता है

खोता है वो स्वास्थ्य,समझ,प्रतिदिन जीवन में

जो अतीत हो चुका उसे अब भी ढोता है

 

जो अतीत को झटक के आगे बढ़ जाता है

और दौड़  कर  नयी सीढ़ियाँ चढ़ जाता है

उसका  जीवन  फिर  से हरा – भरा होता

नये  हौसलों  से  जो  जीवन  गढ़  जाता है

 

पवन तिवारी

११/०६/२०२४