शनिवार, 13 जुलाई 2024

ये बारिश !



ये बारिश !

बुझाती रहती है,

जगत की

न बुझने वाली

प्यास को सतत !

ये बारिश ! कितने ही

रोते हुए चेहरे की,

इज्ज़त बचा लेती है!

ये बारिश ! कितने ही

मटमैले चेहरों को

धो देती है,

फटी हुई धरती को

सी देती है,

मरी हुई नदियों,

तालाबों, पोखरों, तालों को

ज़िंदा कर देती है !

प्रकृति कि उदासी को,

धूल की तरह झाड़कर;

चमका देती है!

प्यास से मरते

नन्हें पौधों और

वनस्पतियों को,

बचा लेती है !

आसमान का

धूसरित मुँख

धो देती है !

किसानों को

देती है,

आशा की मुस्कान !

देती है सृष्टि को

नव उत्साह और

हम क्या करते हैं,

उसके लिए ?

हम पेड़ काटते हैं,

हम तालाब पाटते हैं,

हम कंक्रीट करते हैं,

हम ! पहाड़, नदी,

समुद्र, सब पर

कब्जा कर रहे हैं!

हम बारिश को घेर कर

उसी तरह मार रहे हैं,

जैसे- कौरवों ने

मारा था अभिमन्यु को !

और फिर

धूर्तों की तरह,

अट्टहास करते हुए

कोसते हैं बारिश को,

अकाल और गर्मी पर !

 

पवन तिवारी

११/०७/२०२४  

 

 

 

 

 

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