सोमवार, 29 जुलाई 2024

आज - कल दर्पण उपेक्षित से पड़े हैं



आज - कल दर्पण उपेक्षित से पड़े हैं

और  वे  इक  धूल  में  हँसते  खड़े हैं

खुरदुरे चेहरों को कन्धों पर उठाकर

ध्रुव सरीखे आचरण पर ज्यों खड़े हैं

 

विष  भरे  कितने  ही  सोने के घड़े हैं

कितने  के  गहनों में हीरे तक जड़े हैं

किंतु जब भी आचरण की बात आयी

दृष्टि   में   वे  हर  दिशा  से ही सड़े हैं

 

मान की ख़ातिर कहाँ कितने लड़ें हैं

कहने  को अपने लिए सब ही बड़े हैं

जब समय आकर  परीक्षा माँगता है

सब   बड़े  सर  रेत  में   जैसे  गड़े हैं

 

पवन तिवारी

२८ /०७/ २०२४ 

रविवार, 21 जुलाई 2024

प्रेम के जैसे बरस रही है बरसा



प्रेम के जैसे  बरस रही है बरसा

सावन से पहले अषाढ़ मन हरसा

 

जैसे झर - झर बरस रहा है

रह रह के कुछ गरज रहा है

टिप - टिप  बीच  में करता

कितने दिनों से था आकुल मन तरसा

सावन से पहले अषाढ़ मन हरसा

 

मिट्टी का रंग  पीला  हो  गया

जो सूखा  था  गीला हो  गया

कनक रंग के दादुर गायें

हँस - हँस  बरसो  बरसा

सावन से पहले अषाढ़ मन हरसा

 

उफ़ छुट्टी गरमी की हो गयी

हवा में भी नरमी सी हो गयी

यूँ अषाढ़ को देख के सावन हरसा

मेघों ने जो मन से जीवन परसा

सावन से पहले अषाढ़ मन हरसा

 

पवन तिवारी

२१/०७/२०२४    

 

 

 

  

शनिवार, 20 जुलाई 2024

भारत - भारत की ध्वनि है तो




भारत - भारत  की ध्वनि है तो

निकट से देखो अरुण ही होगा

नाग   कालिया  भय  खाता हो

फिर समझो वह गरुण ही होगा

 

धरने   वाला   गरल   कंठ  में

जग जाने   केवल  शिव होगा

असम्भव को संभव कर दिया

उसके   अंतर   में   इव  होगा

 

मैं  अगस्त्य   का   शेष  वंश हूँ

पर्वत को भी को झुकना होगा

जो   संकेत    समझ     पाए

वो   कहते   हैं   रुकना   होगा

 

बिन जननी के जनक हुआ हूँ

आदि  शक्ति को आना होगा

मुझसे   बैर   जगत   के   बैरी

को  इस  जग   से जाना होगा

 

पवन तिवारी

२०/०७/२०२४


नोट : रात में पौने एक बजे सोते समय यह कविता अवतरित हुई. उठकर बत्ती जलाया और लिखा. तब जाकर सो सका.   

 

शनिवार, 13 जुलाई 2024

ये बारिश !



ये बारिश !

बुझाती रहती है,

जगत की

न बुझने वाली

प्यास को सतत !

ये बारिश ! कितने ही

रोते हुए चेहरे की,

इज्ज़त बचा लेती है!

ये बारिश ! कितने ही

मटमैले चेहरों को

धो देती है,

फटी हुई धरती को

सी देती है,

मरी हुई नदियों,

तालाबों, पोखरों, तालों को

ज़िंदा कर देती है !

प्रकृति कि उदासी को,

धूल की तरह झाड़कर;

चमका देती है!

प्यास से मरते

नन्हें पौधों और

वनस्पतियों को,

बचा लेती है !

आसमान का

धूसरित मुँख

धो देती है !

किसानों को

देती है,

आशा की मुस्कान !

देती है सृष्टि को

नव उत्साह और

हम क्या करते हैं,

उसके लिए ?

हम पेड़ काटते हैं,

हम तालाब पाटते हैं,

हम कंक्रीट करते हैं,

हम ! पहाड़, नदी,

समुद्र, सब पर

कब्जा कर रहे हैं!

हम बारिश को घेर कर

उसी तरह मार रहे हैं,

जैसे- कौरवों ने

मारा था अभिमन्यु को !

और फिर

धूर्तों की तरह,

अट्टहास करते हुए

कोसते हैं बारिश को,

अकाल और गर्मी पर !

 

पवन तिवारी

११/०७/२०२४