गुरुवार, 28 जुलाई 2022

हूँ गृहस्त पर वैरागी सा

हूँ  गृहस्त  पर  वैरागी  सा  भटक  रहा हूँ

अपनों  को  ही  गैरों सा  मैं  खटक रहा हूँ

पैर  फँसाते, बाँह  पकड़ने  की  कोशिश है

पर निष्ठा है ध्येय का पथ सा झटक रहा हूँ

 

प्रति  पग - पग  पर  छल  प्रपंच  बैठे  हैं

हम   शब्दों   का   अस्त्र   लिए   ऐंठे   हैं

कुछ   हमको   धकियाते   ताने  मार रहे

हम  कितनों  के   हिय  में  गहरे  पैठे  हैं

 

द्रव्य के गण हमको रह रह कर घेर रहे

शब्दों  से  जब  हुआ  सामना  ढेर  रहे

अवसर पा  माया  से  मारा  करते  हैं  

उनकी  चाल पे हम भी पानी फेर रहे

 

शब्द ब्रह्म  है  मृत्यु  नहीं उसकी होगी

अंत है उसका निश्चित जो होगा भोगी

जो वाचा की शरण गया वो अमर हुआ

अद्भुत शब्द  जोग जाने है बस जोगी

 

आयेगा  कुबेर  जोगी   के  पादों  में

अर्चन स्वर  गूंजेगा  अनहद नादों में

शब्द सिद्धि की देवी जिस दिन प्रगटेगी

सावन  द्वारे  खड़ा  रहेगा  भादों में

 

पवन तिवारी

०३/०४/२०२२    

 

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