मंगलवार, 26 जुलाई 2022

आकृति का आकर्षण ऐसा

आकृति का  आकर्षण  ऐसा  बिन  बूझे दौड़ा आया हूँ

ऐसा  इंद्रजाल  काया  का  जैसे  मैं  सब पर छाया हूँ 

प्रकट हुआ जब सत्य भानु सा माया के घनमाल  कटे 

तन मन दोनों हुए धूसरित  मृदुपूरित धोखा खाया हूँ

 

 हिय हीन वेदना से दोलित हो  करके  मही  पर गिरता हूँ 

आकुल आकृति को लिए हुए ज्यों तारापथ पर फिरता हूँ

ऐसी अनपेक्षित स्थिति है दारुण दुःख से भी कहीं विशद

दिनकर अपराहन अस्त हुआ ज्यों काल रात्रि से घिरता हूँ

 

माया से बढ़कर रति प्रपंच  जाना  हूँ जब छल पाया हूँ   

हूँ दारा से अनुरक्ति  लगा निज पर ही अनादर ढाया हूँ

सुषमा की अभिलाषा ने ज्यों पौरुष का मर्दन किया मेरे

रोया अंदर, सिसकियाँ  भरा जग के समक्ष पर गाया हूँ

 

अब हाय - हाय की ध्वनि प्रतिक्षण हिय से निकले पछताता हूँ

जब कभी  कृपा  कर धी आती  तब  ही  खुद को  समझाता हूँ

यह स्वर्ण कलश में गरल सा है  इसको  केवल  शिव धार सके

बहुधा विक्षिप्त सा हो करके  पुनि-  पुनि इस पथ पर आता हूँ

 

पवन तिवारी

२४/०४/२०२२  

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