शनिवार, 30 जुलाई 2022

बस उहा - पोह में थोड़े झटके हुए

बस उहा - पोह में  थोड़े  झटके  हुए

अपने ही  आप  से  थोड़े  लिपटे हुए

कहना चाहूँ मगर डर है इनकार का

बात  इतनी  सी है किन्तु अटके हुए

 

दिल को कुछ दिन से हूँ हौंसला दे रहा

किन्तु दिल है कि, दिल पे नहीं ले रहा

ऐसे  में   बात   बिन   बात  कैसे  बने

मेरा  दिल  मेरा  ही  सुनने   से   रहा

 

दोस्तों   ने   कई   बार   मुझसे  कहा

प्यार कर,प्यार कर, मैंने सुन के सहा

पर मेरा दिल है सतयुग सा नैतिक बड़ा

कोई  आये  मेरा  दिल  ले  जाये  बहा

 

ऐसा होगा  तभी, होगा  होगा  तभी

वरना दिल का बसेगा नहीं घर कभी

कोई  आये  मेरे  दिल  पे  डाका करे

दोस्तों  सारे  मिल  के दुआ दो अभी

 

पवन तिवारी

१९/०६/२०२२

दिन कटता है तो, संध्या उलझ जाती है

दिन कटता है तो,

संध्या उलझ जाती है .

वो कटती है तो,

रात उलझ जाती है.

इसमें नन्हा दीपक

लड़ते हुए फँसकर

मर जाता है.

बचाते - बचाते

बाती जल जाती है !

और तो और; दीया,

काली हो जाती है.

ज़िंदगी जब

रूठकर आती है ,

पीड़ा भी ठीक से

नहीं बतियाती है.

फिर, आँख गरियाती है.

लगातार झरती जाती है.

समय की मार

इस तरह सताती है .

ज़िंदगी, ज़िंदगी से घबराती है.

मौत पास होकर भी

छूने से घबराती है .

तभी अंदर से

जीने की ज़िद

आवाज़ देती है !

फिर तो,

दुनिया ही बदल जाती है.

 

पवन तिवारी

१९/०६/ २०२२

  

कल्पना में तुम्हारी बनी अल्पना

कल्पना  में  तुम्हारी  बनी अल्पना

अन्य कोई नहीं क्यों तुम्हीं सोचना

मन नियत कर चुका था तुम्हीं अभिलषित

वेग अपने भी हिय का नहीं रोकना

 

दृग  हैं  जो  चाहते  दृश्य  को  देखना

नेह  दो  ऐसे  भावों  को मत  फेंकना

प्रेम  अभिसार  हो  करके  असंग  हो

हर किसी व्याधि से हो अधिक वेदना

 

लोचन   लोचना  की  है   आलोचना

है  प्रथम  राग  व्याघात को मोचना

दृष्टि कलुषित नहीं नेह  की  है तृषा

राग लोचन लिए  हो सुगम लोचना

 

फिर स्वतः नष्ट व्यवधान  हो जायेंगे

दो  हृदय   प्रेम  के  एक  में  पायेगे

स्वर  उठेंगे  नये  शून्य के पार तक

उर के संग काया के रोम भी गायेंगे

 

 

पवन तिवारी

१६/०६/२०२२

कहेगा क्या जग

कहेगा क्या जग इसके कारण फँसते हैं

संशय लोक लाज से  भी हम धँसते हैं

जो अपनी  सुनते अपने  ढंग  से जीते

सुख संतोष साथ  में  उनके  बसते हैं

 

पीड़ा  में  भी झूठ  - मूठ  का  हँसते हैं

अंतरतम की ग्रीवा   को निज कसते हैं

निज स्वभाव के उलट आचरण हैं करते

इसीलिये  दुःख बारी – बारी डसते हैं

 

उम्र से कुछ ज्यादा ही भारी बस्ते  हैं

लोग वस्तुओं से  भी  ज्यादा सस्ते हैं

थोड़ा सोच समझकर श्रम का अस्त्र गहें

फिर जीवन को मिलते अच्छे रस्ते हैं

 

बातें तो हम भी कुछ  अच्छी करते हैं

पर जीवन में सही सही नहीं धरते हैं

जब भी अच्छी  बातें जीवन में लाते

अपने क्या अन्यों के भी दुःख हरते हैं

 

पवन तिवारी

०९/०६/२०२२    

शुक्रवार, 29 जुलाई 2022

समय मुझे खंडित करने को

समय मुझे खंडित करने  को, कई बार लपका है

मत पूछो यह दुर्प्रयास  कितना, कैसे, कब का है

यह समस्त जीवन का केवल एक भाग है समझो

अच्छा समय कर्म लायेगा, कभी  नहीं टपका है

 

अच्छे में  बंटवारा  चाहें, सब  कहते सबका है

बुरा हुआ तो सब ही भागें एक कोई लटका है

लाभ तलक ही साथ चलें हैं चाहे रक्त के हो संबंध

छोटे बड़े की बात नहीं  है इसमें हर तबका है

 

अपना अनुभव बता रहा हूँ, जो खाया झटका है

गैरों से कम ही बिगड़ा  है, अपनों से  अटका  है

गैरों   से   तो   जैसे   तैसे,  पार   ही   पा  लेंगे

अपनों से ही छल मिलने का बहुत बड़ा खटका है

 

जो भी है इतिहास देख लो खुद के बल चटका है

अपनों की ही मिली भगत से दुश्मन ने पटका है

इसीलिये जो भी करना निज मति औ भुजबल से करना

अन्य पे आश्रित रहने वाला अक्सर ही भटका है

 

 

पवन तिवारी

०१/०६/२०२२  

 

 

तंतुओं में भी स्वर आ रहे हैं


तंतुओं  में  भी  स्वर   रहे हैं

रंध्र   भी  राग   में  गा  रहे  हैं

पहुँची  थी  गंध  केवल तुम्हारी

सब  तुम्हारी  तरफ  जा रहे हैं

 

रोम  पुलकित  हुए  जा  रहे हैं

नैन   चंचल  हुए  जा   रहे  हैं

भाल  का  तेज  बढ़ने  लगा है

गाल  रक्तिम  हुए  जा  रहे हैं

 

शून्य  में  घन  घने  हो  रहे हैं

वायु  चंचल  मने  हो  रहे  हैं

पुष्पों की गंध कुछ बढ़ गयी है

पथ लगें  ज्यों सुगम हो रहे हैं

 

दृश्य  अच्छे  सभी  लग रहे हैं

लग रहा जैसे सब  सज रहे हैं

धीमें धीमें तुम्हीं चल रही हो

सब तुम्हारी तरफ भाग रहे हैं

 

तुम हो अनुपम सभी कह रहे हैं

रूप   का  तेज  सब  सह रहे हैं

रूप  से मैं भी पीड़ित हूँ सच है

चुप  हैं अंदर  से पर ढह रहे हैं

 

हम   भी  सीधे   थे सच्चे रहे हैं

उर को प्रतिक्षण संभाले रहे हैं

 रही  हो  परीक्षा  है मेरी

उच्चतम   मान    मेरे   रहे  हैं

 

पवन तिवारी

२६/०५/२०२२

 

जग भर के लिए अर्थ था मैं

जग  भर  के  लिए अर्थ था मैं

तुम्हरे  दृग  में  कदर्थ   था  मैं

फिर  मेरा  अर्थ  निरर्थक  था

उर यूँ धड़का  ज्यों व्यर्थ था मैं

 

पहले  कितना   हर्षित  था  मैं

निज के ही  प्रति कर्षित था मैं

फिर तुम आयी निज को भूला

तुम पर  ही  आकर्षित  था  मैं

 

अब सोचूँ  क्या  भोला था मैं

या  रूप  में फँस डोला था मैं

या प्रेम में सुधबुध  भूल के मैं

अपने हिय को  खोला  था मैं

 

पट खुलते ही लुट गया था मैं

जैसे   बावरा  भया   था   मैं

तुमने जब  कस  ठोकर मारी

गिर गया खिलाड़ी नया था मैं

 

मेरा  क्या  मैं  तो बस था मैं

थोड़ा   वैसा  अल्हड़  था  मैं

तुम  होशियार  रहना  यारों

वैसे    पहले  मैं  भी  था  मैं

 

पवन तिवारी

२३/०५/२०२२