सोमवार, 6 जून 2022

किसका दिल किसका

किसका दिल किसका घर है

अनजाना  सा  इक   डर  है

अपनी सुध में हैं बेसुध सब

कुछ न पता किसका दर है

 

तन  लगता  जैसे  खर  है

अंदर   से    जैसे  तर  है

बेमन से बस चल रहे हैं

कोई चिंता न  फिकर है

 

बेबसी से झुका सब सर है

लगता  नहीं  कोई  नर है

चेहरे से  कुंठा  है  झरती

जिन्दगी बस जिन्दगी भर है

 

जिन्दगी  जाती  किधर है

कभी इधर या कभी उधर है

जाल हैं  स्वारथ  के  फैले

ज़िंदगी भी  हुई  जर्जर है

 

 

नेह का केवल बचा नगर है

अपनाता वह भी  अगर है

इसलिए आदमीयत बचा लो

खुद को जीना यदि जी भर है

 

पवन तिवारी

०३/०८/२०२१

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