सोमवार, 25 अप्रैल 2022

भोर नहीं अब बतियाती है

भोर नहीं अब बतियाती है

रात नहीं  हँसकर आती है

तुलसी कब की सुख गयी है

दीपक  में  केवल  बाती है

 

 थोड़ा – थोड़ा  रोज  मरा हूँ

सुलग-सुलग कर रोज जरा हूँ

चेहरा शेष रह गया अब तक

सो  लोगों  को  लगे  हरा  हूँ

 

हर  क्षण  मुझको तड़पाती है

फिर भी उसकी सुध आती है

कितना  प्रेम  रहा  है  उससे

पीड़ाओं  को  भी  भाती  है

 

षडयंत्रों  से   वो   मारी  है

झूठ पे  झूठ  मगर  हारी है

ऐसे  में  वो  झुंझला करके

देती  गारी  पर   गारी  है

 

सो  शब्दों  के द्वार  आ गया

जीने  का  आधार  पा गया

सारे दुःख इसके  घर रखता

एक नया परिवार  पा गया

 

पवन तिवारी

१९/०४/२०२१  

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