शनिवार, 19 अक्टूबर 2019

गाँव की व्यथा


खेती  करना  मरने  जैसा
गाँव नहीं अब  रहने जैसा
कहने को बहु लोग कहें हैं
नहीं रहा कुछ  करने जैसा

कुछ को  बातें  बुरी लगेंगी
कुछ को  थोड़ी सही लगेंगी
गाँव का वासी ही सच जाने
गाँव की  मेड़ें सड़ी  लगेंगी

जब देखो अकाल पड़ जाता
खेत आवारा पशु खा जाता
सरकारों  के   इंतज़ार  में
हरा खेत यूँ ही चर  जाता

सूखे से  घटती  आबादी
ओला से  भी हो  बर्बादी
बाढ़ में यदि अनुदान मिले भी
उसको भी खा जाये खादी

मजबूरी  का  नाम किसानी
कहने को भारत की निशानी
नये – नये तो नगर को भागे
गाँव में कैसे  कटे   जवानी

गाँव स्वर्ग थे नर्क  हो गये
अर्थ के कारण फर्क हो गये
खाली हाथ झुलाते कब तक
झूठे - मूठे  तर्क  हो  गये

बाग़ भी कटते-कटते कट गये
ताल भी पटते-पटते पट गये
अब  सूखे  का  रोना  रोते
जल के सारे स्रोत निपट गये

रिश्ते भी स्वारथ में बंट गये
अपने ही अपनों को चट गये
यहाँ  भी  पश्चिम आते  ही
भाई  भी भाई से  कट गये


मुश्किल   में   मजदूरी   है
जीना  भी   तो  जरुरी   है
इसीलिये  हैं  भाग रहे  सब
गाँव  से   बढ़ती   दूरी  है



पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – पवनतिवारी@डाटामेल.भारत
   



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