गुरुवार, 12 सितंबर 2019

संस्कृति के दांत


कहां से हम कहाँ को अब जा रहे हैं
अपनी माटी  से ही कटते जा रहे हैं

संस्कृति के दांत  तोड़े जा रहे हैं
भाषा के भी पट उतारे जा रहे हैं
आपसी बंधुत्व की हत्या करा के
चीखों में कुछ गीत गाये जा रहे हैं

लोक से अब लोक गायब हो रहे हैं
कथित अगुवा ही अजायब हो रहे हैं
कल तलक जो मार्ग थे पगडंडी हो गये
लूटने  वाले  ही  नायब  हो  रहे हैं

इसलिए अब  गीत बदले जा रहे हैं
कुछ नए सुर ताल जुड़ते जा रहे हैं
राग निज का त्याग कर हैं बढ़ चले
देश से  चुपचाप मिलने जा  रहे हैं

गीत अब हम राष्ट्र के गाने लगे हैं
बेड़ियों  से  पार  अब जाने लगे हैं  
गीत  जो  गाते  कभी श्रृंगार के थे
शब्दों  में  अंगार  वे  लाने लगे हैं

नौजवाँ जागे तो  सब  ही जग गये
राष्ट्र की खातिर  सभी थे लग गये
भारती  के  लाल की हुंकार सुनकर
जो थे दुश्मन  दम दबाकर भग गये



पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८

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