सोमवार, 5 अगस्त 2019

कहीं - कहीं घर बार है डूबा


कहीं - कहीं घर बार  है डूबा
कहीं – कहीं  मीलों  है सूखा
वर्षा  से  कुछ हरा - भरा है
कहीं  का  थल वर्षों से भूखा

बरसा  से  किसान  खुश  है
किन्तु  बाढ़ से भी  दुःख  है
रंग  कई  हैं  बरखा  के भी  
अलग - अलग उसका रुख है

लट  भीगे   जब  सावन  में
अँगड़ाई   उठे  तन  मन  में
जैसे    मृग   कस्तूरी  खोजे
प्रेमी   मन   भटके  तन  में

बरखा  में जब  बिजली  कड़के
चोर हिया  तब  जोर से  धड़के
लहर के जब - जब बरखा आये
प्रेमी  मन  फड़फड़  फड़ फड़के

टिप – टुप  बरसे  बारिश  जब
भीग - भीग  मन  मचले  तब
सजनी  देखे   पिय   की  राह
चाहत  हो   आ   जाएँ   अब    

पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – पवनतिवारी@डाटामेल.भारत   


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