शनिवार, 27 अक्टूबर 2018

तब लिखता हूँ...


























































तब लिखता हूँ...

मैं क्यों लिखता हूँ
तुम रोज पूछते हो
सो सोचा आज तुम्हें
बता ही दूँ.
हाँ, बुरा मत मानना
पर मान भी गये
तो भी बेपरवाह आज
बताना जरूरी है
तुम्हारे प्रश्न का उत्तर
जो भी जानना चाहते हैं
मैं क्यों लिखता हूँ ?
आओ पास बैठो, आराम से
अब सुनो, मैं क्यों लिखता हूँ...
जब बर्दाश्त से बाहर हो जाता है
बेचैन होकर सर पकड़ने की
नौबत आ जाती है
अकेले में लगता हूँ भुनभुनाने
कोई नहीं मिलता ऐसा
जिससे कह सकूँ
अपनी बेचैनी,भुनभुनाहट
“तब लिखता हूँ”
पता है...
जब खेतों में धान काटती,
बच्चियों को देखता हूँ,
जब बाज़ार में समोसे
बेचते बच्चे को देखता हूँ
जब मेले में खिलौने
बेचते बच्चे को देखता हूँ
और जब पाठशाला में उनका
रिक्त स्थान नहीं देखता हूँ

 “तब लिखता हूँ”

जब दिन भर जी तोड़ श्रम के बाद भी
एक श्रमिक को मजदूरी के बदले
मिलती हैं निःशुल्क भद्दी गालियाँ
वह समझ नहीं पाता कि
क्यों मिली उसे गालियाँ
तड़प उठता है उसका रोम-रोम

“तब लिखता हूँ”

जब कभी व्यवस्था के नाम पर
देखता हूँ लूट और
अंदर से मन हिंसक होने लगता है
कि मनुष्य की दुश्मन होती
इस व्यवस्था की कर दूँ हत्या
इससे पहले कि अंदर की हिंसा
आ जाए बाहर

“तब लिखता हूँ”

जब चारो ओर चाटुकारिता
मिथ्या की अनर्गल प्रशंसा
विद्वानों और साहित्य की उपेक्षा पर
ठहाके सुनता हूँ और
मेरे कान के पर्दे होने लगते हैं शून्य
“तब लिखता हूँ”
झूठ को सत्य के सामने
जब अट्टहास करते देखता हूँ
और सत्य के निस्पृह मौन को
लगता है मानो
फटने वाली है मेरी छाती
रुकने वाला है साँस का आवागमन
भाषा अधरों पर आकर
बड़बड़ाने लगती है बदहवास

“तब लिखता हूँ”

और हाँ, जब अपनों की भीड़ के मध्य
सत्य स्वयं को अपरिचित पाने लगता है
उपेक्षा से होने लगता है निराश
होने लगता है
उपहास का पात्र होने के करीब
और देखता है मेरी तरफ

“तब लिखता हूँ”


पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक - poetpawan50@gmail.com




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