शुक्रवार, 15 जून 2018

चाहकर भी तुझे दिल को डरना पड़ा













चाहकर भी तुझे दिल को डरना पड़ा
प्यार पहला था सहमा मुकरना पड़ा

फिर तेरे प्रेम में मैंने क्या-क्या सुना
माँ- बहन - बाप से भी झगड़ना पड़ा

जब अकेले में खुद से मिला खुद ही मैं
अनगिनत बार खुद से ही लड़ना पड़ा

यूँ जवानी - जवानी पे  भारी  पड़ी
जोश को होश को फिर रगड़ना पड़ा

मैंने सोचा था बहकूँगा ना जोश में
बाहों में आ गयी सो बहकना पड़ा

मैं फिसलना नहीं चाहता था मगर
थी  बेकाबू जवानी  फिसलना पड़ा

इस कदर प्रेम में मैं दीवाना हुआ
जीते जी भी कई बार मरना पड़ा

तूँ मुझे छोड़ करके चली जब गयी
प्यार  में  तेरे झूठे  सँवरना  पड़ा

दोस्तों  ने तेरा  जिक्र  छेड़ा जो तो
यूँ चहकने का नाटक भी करना पड़ा


पवन तिवारी
सम्पर्क ७७१८०८०९७८
poetpawan50@gmail.com  

मैं मर रहा था अंदर से थोड़ा – थोड़ा







































मैं मर रहा था अंदर से थोड़ा थोड़ा
मेरे अंदर का जानवर
उभर रहा था थोड़ा थोड़ा
उन्हीं दिनों फुटपाथ से गुजरते हुए
उड़ रहा था मेरे आस पास एक गन्दला
एक कोना फटा हुआ आवारा पन्ना
मैंने पकड़ लिया ऐसे ही
कुछ शब्द चिपके हुए थे उससे
उन्हें निहारा, पता चला वो कविता थी
पर अधूरी, उसकी तलाश में भटकने लगा
वो तो नहीं मिली, पर
दूसरी कई कविताओं से भेंट हुई
कविताओं से मिलते जुलते
जान पहचान हो गयी
अब मैं उनसे बतियाने भी लगा था
उनसे मेरा जी मित्रता करने को हुआ
मैं भी जुटाने लगा शब्द
करीने से बिठाने लगा शब्द
उर को झंकृत कर रहे थे ये शब्द
सो गुनगुनाने लगा शब्द
 अब मैं भी शब्दों को
उकेरने लगा हूँ फड़फड़ाते
और शाँत पन्नों पर
इन शब्दों में मेरे वे जज्बात हैं
जिन्हें मैं नहीं कर पाया किसी से व्यक्त
तमाम प्रयासों के बावजूद
मेरी वे पीड़ाएँ , बेचैनियाँ
बड़ी उदारता से ले ली शब्दों ने
और कर दिया एकदम हल्का मुझे
मनुष्य,प्रकृति, समाज, विश्व
सबकी चिंताएँ, पीड़ाएँ, बातें,
विचार, सम्बन्ध, सारा कुछ
 जो मुझे करता है व्यथित
शब्दों को सौंप कर हो जाता हूँ मुक्त
वही कविता कहलाते हैं
अब मैं अंदर और बाहर
दोनो ओर से जी रहा हूँ बराबर
उभर रहा था जो जानवर
शब्दों के विशाल संग्रह के बहुत नीचे
न जाने कहाँ दब गया है और
उसकी जगह उग आया है
शब्दों का अनुपम उद्यान
अब मुझे आदमी सा महसूस होने लगा है
मैं आदमी बन कर खुश हूँ
कविता ही लोगों को बना सकती है आदमी
धन्यवाद कविता इसी तरह लोगो को
आदमी बनाती रहना सतत

पवन तिवारी
संवाद ७७१८०८०९७८
poetpawan50@gmail.com
 
   

पद व पैसे ने उनको गुबारा किया


पद व पैसे ने उनको गुबारा किया
मंच पर इसलिए वारान्यारा किया
ज्ञान के शहद में जो थे डूबे हुए
उनका आयोजकों ने कबाड़ा किया

मंच से अर्थ  वाले  अनर्गल  कहें
हो विषय और कुछ,और कुछ वो कहें
शारदा पुत्र नीचे विवश हो सुने
ऐसे आयोजकों को कहें क्या कहें

हर जगह मंच पर अर्थ आसीन है
शारदा  पुत्र  नीचे  पड़ा  हीन है
ज्ञान की बातें,बातों तक सिमटी हुई
मंच  पर अर्थ वाले  समीचीन हैं

हर किसी को चमक चाहिए मंच पर
हों के बदनाम, पर नाम हो मंच पर
योग्य लोगों को श्रोता बना कर बिठा
अर्थ वाला  है अध्यक्ष बन मंच पर 

पवन तिवारी

मेरे प्यारे देश इधर मैं कई दिनों से


मेरे प्यारे देश इधर मैं कई दिनों से
ठीक से सोया नहीं हूँ
कई दिनों से भीड़ में भी खोया नहीं हूँ
मैं, मेरे विचारों से बतिया रहा हूँ
कई दिनों से
दोनों की नींदें फड़फड़ा रही हैं

आखिर ये दोनों क्या ऐसा बतिया रहे हैं
जो हमसे मिलने का भी समय नहीं है
पता है मेरे प्यारे देश, हमारी बातें
तुम्हारी समस्याओं के बारे में थीं
हमें पकड़ में आयीं
तुम्हारी दो मूल समस्याएँ
इन्हीं से हैं फिर
हज़ारों- हज़ारों समस्याएँ

पहली समस्या गरीबी ज़िन्दाबाद
दूसरी अंग्रेज़ी ज़िन्दाबाद
पता है प्यारे देश तुम्हारी परेशानी
नेताओं के ह्रदय में बसे,
अधिकारियों के हृदय में बसे
इन नारों में
पल्लवित-पुष्पित होती रहती हैं
दिन - दूनी रात चौगुनी

तुम चुप क्यों हो प्यारे देश
समझ नहीं पाए शायद मेरी बात
हाँ, तुम्हारी तरह ही
देश का आम आदमी 
या कहें गरीब आदमी
वो भी नहीं समझ पाता मेरी बात
तभी तो तुम्हारी तरह वो भी है
सदा से परेशान

मैं फिर भी एक बार और
करता हूँ प्रयास
पता है मेरे प्यारे देश
हज़ारों करोड़ की योजनायें बनेंगी
गरीब रहेंगे तभी तो
उनके उद्धार के नाम पर
उसके ठेके अधिकारी
और नेता हड़पेंगे
गरीब रहेंगे  तभी तो
उनके घरों में नौकर
और फुवारियों में माली मिलेंगे

उनके ऊँचे महल
गरीब ही तो बनायेंगे
उनके नाक पर टिका गुस्सा
और गालियाँ  और तो और
उनकी भौड़ी गलतियों का ख़ामियाज़ा
कौन भुगतेगा....?
गरीब ही तो ....
होंगे नहीं गरीब तो
राज किस पर करेंगे
सारी तिकड़म गरीबी को
पाले रखने की है
गरीबी हटाओं तो
ऊपर का मेकप भर है
और हाँ
अंगरेजी ज़िन्दाबाद रहेगी
तो पता है,क्या होगा
मेरे प्यारे देश गरीब का बेटा
देशी भाषा पढ़ के
अधिकारी नहीं बन पायेगा
चपरासी और लिपिक ही बनेगा
और साहब की हाँ में हाँ कहेगा
सस्ता गरीब मँहगी अंगरेजी
नहीं खरीद पायेगा
और फिर उनके आगे
दुम हिलाएगा

पता है मेरे प्यारे देश
अगर अंगरेजी ज़िन्दाबाद न रही तो
फिर हिन्दी, उड़िया,कन्नड़,पंजाबी,मराठी
सभी ज़िन्दाबाद हो जायेंगी
फिर गरीब हिन्दी,
उड़िया,कन्नड़,पंजाबी,मराठी
पढ़कर भी अधिकारी बनेगा
और अमीर, साहब भी बनेगा
पता है फिर क्या होगा
अंगरेजी जिंदाबाद वाले
पैदल हो जायेंगे
ये तो नौकर का काम भी
नहीं कर पायेंगे ठीक से
माली का काम भी इनके बच्चे
शायद ही कर पायें कुशलता से


फिर तो हर जगह
गरीब पास होगा
बराबर की हिस्सेदारी होगी
उसका भी तुम्हारे तले सम्मान होगा
मेरे प्यारे देश
क्या तुम समझे मेरी बात
क्या तुम्हें तुम्हारी माँ का दिया नाम
भारत अच्छा नहीं लगता मेरे प्यारे देश



क्या तुम्हें तुम्हारे घर की बोली
पसंद नहीं मेरे प्यारे देश
क्या तुम्हें आम लोग
पसंद नहीं मेरे प्यारे देश
क्या तुम्हें अपनी संस्कृति,
अपनी परम्परा पसंद नहीं
मेरे प्यारे देश
अगर है तो हुँकारी के साथ
हुंकार भी भरो और
इन दोनों का प्रतिकार करो
मेरे प्यारे देश !

पवन तिवारी
सम्पर्क -७७१८०८०९७८
poetpawan50@gmail.com

अर्चन की सुमन सी लगती तुम


अर्चन की सुमन सी लगती तुम
अनुरक्ति के स्वर से लगती तुम
क्या  करूँ  प्रशंसा  अनुपम  हो
राधा की छवि  सी  लगती तुम

तुम दिखो तो दिन भर तृप्त रहूँ
तुम मिलो दिनों तक स्वस्थ रहूँ
तुमसे   संवाद   जो  हो  जाए
मैं मुदित कई निशि दिवस रहूँ

कुछ  ऐसी  माया  है  तुम्हरी 
कुछ  ऐसी  काया  है  तुम्हरी
ये  प्रणय   तुम्हारा  है  ऐसा
हर सुमुखी  में छवि है तुम्हरी

तुम मिली तुम्हारा प्रणय मिला
जीवन का हल फिर सरल मिला
उमड़ा  जीवन  में  हर्ष  अनंत
जैसे  प्रभु  का  हो वरद मिला 

पवन तिवारी
सम्पर्क ७७१८०८०९७८
poetpawan50@gmail.com

शहर आया तो वो याद आने लगे


शहर आया तो वो याद आने लगे
खेत सरसों के वो याद आने लगे
वो बारिश में अमरूद का तोड़ना
आम के बाग़ वो याद आने लगे

चाट के ठेले वो याद आने लगे
मेले संक्रांति के याद आने लगे
गीले खेतों से गाजर चुराने के दिन
गाँव, पोखर, गली याद आने लगे


चोखा-चटनी के दिन याद आने लगे
चूनी रोटी के दिन याद आने लगे
माँ के आँचल से मिलती चवन्नी जो थी
लेमनचूसों के दिन याद आने लगे

बेर, इमली के दिन याद आने लगे
गुड़ में गंजी के दिन याद आने लगे
भूसे में आम, बड़हल पकाने के दिन
कंचों वाले वे दिन याद आने लगे

गुल्ली डंडा के दिन याद आने लगे
रक्षाबंधन के दिन याद आने लगे
दोस्तों संग नदी में नहाने के दिन
वो बतासे दही याद आने लगे

बंगला कट बाल वो याद आने लगे
काले टीके के दिन याद आने लगे
टाट पर बैठ कर वे पहाड़े के दिन
पाठशाला के दिन याद आने लगे

बाइस्कोपों के दिन याद आने लगे
वो मदारी के दिन याद आने लगे
वो नौटंकी का रात भर देखना
वो बरातों के दिन याद आने लगे

छुप छुपाई के दिन याद आने लगे
वो गुलेलों के दिन याद आने लगे
टायरों संग सर्दी में हम खेलते
बचपने के वे दिन याद आने लगे

लालटेनों के दिन याद आने लगे
शाम के वे दिए याद आने लगे
यूं अँधेरे में खटिये से टकरा जाना
हल्दी प्याज के दिन याद आने लगे

पाठशाला के दिन याद आने लगे
चाक सरकंडे वो याद आने लगे
दो चोटी में चलती थी जब लड़कियाँ
गाँव के रंग वो याद आने लगे

बहनों से वो चुहल याद आने लगे
गेहूँ के बदले बरफ याद आने लगे
पहली रोटी की खातिर जो झगड़े हुए
फिर रसोई व माँ याद आने लगे

पवन तिवारी
सम्पर्क ७७१८०८०९७८

दिल के कुछ सामान निकालूँ


दिल के कुछ सामान निकालूँ
बचे खुचे अरमान निकालूँ
घुटने अफ़नाने से अच्छा
सारे सच के जाम निकालूँ

किससे-किससे काम निकालूँ
किसके हिस्से  काम निकालूँ
ये सब मेरा नहीं है मेरा
मिलो तो हँस के शाम निकालूँ

आज प्यार का नाम निकालूँ
बारिश वाली शाम निकालूँ
चलो याद में आज गुज़ारूँ
बीते दिन तमाम निकालूँ

उनके कुछ पैगाम निकालूँ
चिठियों से ईमान निकालूँ
कितनी भोली सच्ची थी वो
उन पे इक दीवान निकालूँ

पवन तिवारी
सम्पर्क ७७१८०८०९७८
poetpawan50@gmail.com