शुक्रवार, 15 जून 2018

मैं मर रहा था अंदर से थोड़ा – थोड़ा







































मैं मर रहा था अंदर से थोड़ा थोड़ा
मेरे अंदर का जानवर
उभर रहा था थोड़ा थोड़ा
उन्हीं दिनों फुटपाथ से गुजरते हुए
उड़ रहा था मेरे आस पास एक गन्दला
एक कोना फटा हुआ आवारा पन्ना
मैंने पकड़ लिया ऐसे ही
कुछ शब्द चिपके हुए थे उससे
उन्हें निहारा, पता चला वो कविता थी
पर अधूरी, उसकी तलाश में भटकने लगा
वो तो नहीं मिली, पर
दूसरी कई कविताओं से भेंट हुई
कविताओं से मिलते जुलते
जान पहचान हो गयी
अब मैं उनसे बतियाने भी लगा था
उनसे मेरा जी मित्रता करने को हुआ
मैं भी जुटाने लगा शब्द
करीने से बिठाने लगा शब्द
उर को झंकृत कर रहे थे ये शब्द
सो गुनगुनाने लगा शब्द
 अब मैं भी शब्दों को
उकेरने लगा हूँ फड़फड़ाते
और शाँत पन्नों पर
इन शब्दों में मेरे वे जज्बात हैं
जिन्हें मैं नहीं कर पाया किसी से व्यक्त
तमाम प्रयासों के बावजूद
मेरी वे पीड़ाएँ , बेचैनियाँ
बड़ी उदारता से ले ली शब्दों ने
और कर दिया एकदम हल्का मुझे
मनुष्य,प्रकृति, समाज, विश्व
सबकी चिंताएँ, पीड़ाएँ, बातें,
विचार, सम्बन्ध, सारा कुछ
 जो मुझे करता है व्यथित
शब्दों को सौंप कर हो जाता हूँ मुक्त
वही कविता कहलाते हैं
अब मैं अंदर और बाहर
दोनो ओर से जी रहा हूँ बराबर
उभर रहा था जो जानवर
शब्दों के विशाल संग्रह के बहुत नीचे
न जाने कहाँ दब गया है और
उसकी जगह उग आया है
शब्दों का अनुपम उद्यान
अब मुझे आदमी सा महसूस होने लगा है
मैं आदमी बन कर खुश हूँ
कविता ही लोगों को बना सकती है आदमी
धन्यवाद कविता इसी तरह लोगो को
आदमी बनाती रहना सतत

पवन तिवारी
संवाद ७७१८०८०९७८
poetpawan50@gmail.com
 
   

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