और चाहती हूँ तुम भी
चाहो
मैं तुम्हें ऐसे
पाना चाहती हूँ 
जैसे- जब मैं जाड़े
में ठण्ड से 
कांपती जाड़े वाली
लडकी हो जाऊं 
तब तुम जाड़े वाली
गुनगुनी
धूप बनाकर आना.
 जब मैं गर्मियों में
पसीने से तर-बतर हो जाऊं
तब तुम शीतल पवन बन
मेरे बदन में लिपटना 
मेरी गंध को महसूस
करना 
जब शीत लहर में मेरी
उँगलियाँ कांप रही हों
तब तुम अलाव की आँच
बन मेरी उँगलियों को चूमना 
 मैं तुम्हें पाना ही
नहीं,अपने साथ
पूरा–पूरा महसूस
करना चाहती हूँ 
जब मैं जाड़े की रात
में सोने जाऊं 
तब तुम रजाई बन मेरे
पूरे ठण्डे बदन को 
धीरे-धीरे प्यार से गर्म
करना और फिर 
एक-दूसरे की गर्माहट
से भरी
प्यारी आगोश में
खोकर सो जाएँ 
मैं तुम्हें अपने
रोम-रोम में समाहित करना चाहती हूँ
अंग-अंग में तुम्हें
और तुम्हारी गंध को भी पाना चाहती हूँ
सावन में जब भी खुले
आसमान में निकलूँ
तुम बारिश बनकर
मुझसे मिलने आओ 
मेरा रोम-रोम अपनी
महकती बूंदों से पुलकित कर दो 
तुम मुझे ,मैं
तुम्हें पा जाऊं रेशा-रेशा पूरा का पूरा 
मैं चाहती हूँ
पूर्णता में पाना एक ऐसी निशानी 
जो सदा “तुम मेरे हो”
का एहसास दिलाये 
जब मैं मंडप में
बैठूँ मेरी माँग संवारी जाए तो 
तुम उसमें सिन्दूर
बनकर बस जाओ ताकि मैं 
पूरी-की-पूरी
तुम्हारे नाम में घुल जाऊं 
मुझे सिर्फ मेरा नाम
नहीं चाहिए क्योंकि 
मैं तुम्हें चाहती
हूँ तुममे ही
अपना भविष्य देखती
हूँ 
सब कुछ पाने के लिए 
सब कुछ खोना पड़ता है
मैं तुम्हें पूरा
पाना चाहती हूँ 
खुद को पूरा खोकर और
फिर 
हमारे संयुक्त
अस्तित्व की
निशानी दुनिया में
आयेगी 
जो न मेरी न आप की
बल्कि हमारी होगी 
और फिर मैं मैं नहीं
आप आप नहीं बल्कि 
हम होंगे और तब हम
पा सकेंगे 
पूरा-पूरा एक दूसरे
को
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