रविवार, 28 अगस्त 2016

कश्मीर और उसके जख्म

कश्मीर का प्राचीन विस्तृत लिखित इतिहास मिलता है कल्हण द्वारा 12वीं शताब्दी ई. में लिखी गई  ‘’राजतरंगिणी’’ में  तब तक यहां पूर्ण हिन्दू राज्य रहा था। यह अशोक महान के साम्राज्य का हिस्सा भी रहा । लगभग तीसरी शताब्दी में अशोक का शासन रहा था । तभी यहां बौद्ध धर्म का आगमन हुआ, जो आगे चलकर कुषाणों के अधीन समृध्द हुआ था । उज्जैन के महाराज विक्रमादित्य के अधीन छठी शताब्दी में एक बार फिर से सनातन धर्म की वापसी हुई । उनके बाद ललितादित्या हिन्दू शासक रहे, जिसका काल 697 ई. से 738 ई. तक था ।उसके बाद अवन्तिवर्मन ललितादित्या का उत्तराधिकारी बना । उसने श्रीनगर के निकट अवंतिपुर बसाया । उसे ही अपनी राजधानी भी बनाया । जो एक समृद्ध क्षेत्र रहा । उसके खंडहर अवशेष आज भी शहर की कहानी कहते हैं । यहां महाभारत युग के गणपतयार और खीर भवानी मन्दिर आज भी मिलते हैं । गिलगिट में पाण्डुलिपियां हैं , जो प्राचीन पाली भाषा में हैं । उसमें बौद्ध लेख लिखे हैं । त्रिखा शास्त्र भी यहीं की देन है । यह कश्मीर में ही उत्पन्न हुआ । चौदहवीं शताब्दी में यहां मुस्लिम शासन आरंभ हुआ। उसी काल में फारस से सूफी इस्लाम का भी आगमन हुआ । जम्मू का उल्‍लेख महाभारत में भी मिलता है। हाल में अखनूर से प्राप्‍त हड़प्‍पा कालीन अवशेषों तथा मौर्य, कुषाण और गुप्‍त काल की कलाकृतियों से जम्मू के प्राचीन स्‍वरूप पर नया प्रकाश पड़ा है। जम्मू 22 पहाड़ी रियासतों में बंटा हुआ था।
सन १५८९ में यहां मुगल का राज हुआ । यह अकबर का शासन काल था । मुगल साम्राज्य के विखंडन के बाद यहां पठानों का कब्जा हुआ । यह काल यहां का काला युग कहलाता है । फिर १८१४ में पंजाब के शासक महाराजा रणजीत सिंह द्वारा पठानों की पराजय हुई, व सिख साम्राज्य की स्थापना हुई ।
अंग्रेजों द्वारा सिखों की पराजय १८४६ में हुई, जिसका परिणाम था लाहौर संधि । अंग्रेजों द्वारा महाराजा गुलाब सिंह को गद्दी दी गई, जो कश्मीर के स्वतंत्र शासक बने । गिलगित रीजेन्सी अंग्रेज राजनैतिक एजेन्टों के अधीन क्षेत्र रहा । उस समय कश्मीर क्षेत्र से गिलगित क्षेत्र को बाहर माना जाता था । अंग्रेजों द्वारा जम्मू और कश्मीर में पुन: एजेन्ट की नियुक्ति हुई । महाराजा गुलाब सिंह के सबसे बड़े पौत्र महाराजा हरि सिंह 1925 ई. में गद्दी पर बैठे, जिन्होंने 1947 ई. तक शासन किया ।
कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने पाकिस्तान और भारत के साथ तटस्थ समझौता किया । ताकि कश्मीर सुरक्षित भी रहे और उसकी सम्प्रभुता भी बनी रहे ।पहले पाकिस्तान के साथ समझौते पर हस्ताक्षर हुए । भारत के साथ समझौते पर हस्ताक्षर से पहले, पाकिस्तान ने कश्मीर की आवश्यक आपूर्ति को काट दिया जो तटस्थता समझौते का उल्लंघन था । उसने कश्मीर का पाकिस्तान में विलय हेतु दबाव का तरीका अपनाना आरंभ किया , जो भारत व कश्मीर, दोनों को ही स्वीकार्य नहीं था । किन्तु जब पाकिस्तान के दबाव का यह तरीका विफल रहा , तो कबाइलियों को साथ में पाक सेना  ने भी मिलकर कश्मीर पर आक्रमण कर दिया । तब तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने भारत से मदद का आग्रह किया । यह 24 अक्टूबर, 1947 की बात है । किन्तु पंडित नेहरू ने रूचि नहीं दिखाई क्योंकि पंडित नेहरु को महाराजा से अपना पुराना हिसाब चुकता करना था । इस घटना से कुछ कुछ महीने पहले ही कश्मीर की सीमा पर खडे होकर नेहरु ने कश्मीर के राज्यपाल को कहा था, ‘तुम्हारा राजा कुछ दिन बाद मेरे पैरों पड़कर गिडगिडायेगा ।’ शायद महाराजा का कसूर केवल इतना था कि १९३१ में ही उन्होंने लंदन में हुई गोल मेज कान्फ्रेंस में ब्रिटेन की सरकार को कह दिया था कि ‘हम भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में एक साथ हैं।’ उस वक्त वे किसी रियासत के राजा होने के साथ - साथ एक आम गौरवशाली हिन्दुस्तानी के दिल की आवाज की अभिव्यक्ति कर रहे थे । हरि सिंह ने तो उसी वक्त अप्रत्यक्ष रुप से बता दिया था कि भारत की सीमाएं जम्मू कश्मीर तक फैली हुई हैं । लेकिन पंडित नेहरु १९४७ में भी इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं थे । उनकी सोंच वहाँ तक थी ही नहीं .वे अड़े हुए थे कि जम्मू कश्मीर को भारत का हिस्सा तभी माना जायेगा जब महाराजा हरिसिंह सत्ता शेख अब्दुला को सौंप देंगे । ऐसा और किसी भी रियासत में नहीं हुआ था । शेख इतनी बडी रियासत में केवल कश्मीर घाटी में भी कश्मीरी भाषा बोलने वाले केवल सुन्नी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते थे। बिना किसी चुनाव या लोकतांत्रिक पद्धति से शेख को सत्ता सौंप देने का अर्थ लोगों की इच्छा के विपरीत एक नई तानाशाही स्थापित करना ही था । नेहरु तो विलय की बात हरि सिंह की सरकार से करने के लिये भी तैयार नहीं थे । विलय पर निर्णय लेने के लिये वे केवल शेख को सक्षम मानते थे, जबकि वैधानिक व लोकतांत्रिक दोनों दृष्टियों से यह गलत था । महाराजा इस शर्त को मानने के लिये किसी भी तरह तैयार नहीं थे। नेहरू का नकारात्मक रवैया देखकर हरि सिंह ने गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन को कश्मीर में संकट के बारे में लिखा, व साथ ही भारत में विलय की इच्छा प्रकट की । आख़िरकार विलय पत्र पर 26 अक्टूबर, 1947 को पण्डित जवाहरलाल नेहरू और महाराज हरीसिंह ने हस्ताक्षर किये ।  इस विलय को माउंटबेटन द्वारा 27 अक्टूबर, 1947 को स्वीकार किया गया ।  पर तब तक काफी देर हो चुकी थी । कबाइलियों के रूप में पाक सेना ने एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया था । विलय पर हस्ताक्षर के बाद  भारतीय सेना को हमले की आज्ञा मिली । फिर क्या था भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना के छक्के छुड़ाते हुए, उनके द्वारा कब्जा किए गए कश्मीरी क्षेत्र को पुनः प्राप्त करते हुए तेजी से आगे बढ़ रही थी कि बीच में ही 31 दिसंबर 1947 को नेहरूजी ने यूएनओ से अचानक अपील की कि वह पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी लुटेरों को भारत पर आक्रमण करने से रोके। परिणामस्वरुप 1 जनवरी 1949 को भारत-पाकिस्तान के मध्य युद्ध-विराम की घोषणा कराई गई । इससे पहले 1948 में पाकिस्तान ने कबाइलियों के वेश में अपनी सेना को भारतीय कश्मीर में घुसाकर समूची घाटी कब्जाने का प्रयास किया, जो असफल रहा।
नेहरूजी के यूएनओ में चले जाने के कारण युद्धविराम हो गया और भारतीय सेना के हाथ बंध गए। जिससे पाकिस्तान द्वारा कब्जा किए गए शेष क्षेत्र को भारतीय सेना प्राप्त करने में फिर कभी सफल न हो सकी। वही हिस्सा आज पीओके कहलाता है। भारतीय जम्मू और कश्मीर के तीन मुख्य अंचल हैं : जम्मू (हिन्दू बहुल), कश्मीर (मुस्लिम बहुल) और लद्दाख़ (बौद्ध बहुल)। ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर है और शीतकालीन राजधानी जम्मू-तवी। कश्मीर प्रदेश को 'दुनिया का स्वर्ग' माना गया है। अधिकांश जिला हिमालय पर्वत से ढका हुआ है। मुख्य नदियाँ हैं सिन्धु, झेलम और चेनाब। यहाँ कई ख़ूबसूरत झीलें हैं: डल, वुलर और नागिन 


यदि नेहरु इस जिद पर न अड़े रहते कि विलय से पूर्व सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंपी जाये, तो कश्मीर रियासत का विलय भारत में 15 अगस्त 1947 से पहले ही हो जाता और राज्य का इतिहास आज कुछ और ही होता । बाद में किसी ने ठीक ही टिप्पणी की कि .....महाराजा हरि सिंह ने तो पूरे का पूरा राज्य दिया था , लेकिन नेहरु ने उतना ही रखा जितना शेख अब्दुल्ला को चाहिये था, बाकी उन्होंने पाकिस्तान के पास ही रहने दिया ।
कश्मीर को भारत में विलय कर यहां का अभिन्न अंग बनाया । इस विलय पत्र के अनुसार- "राज्य केवल तीन विषयों- रक्षा, विदेशी मामले और संचार -पर अपना अधिकार नहीं रखेगा, बाकी सभी पर उसका नियंत्रण होगा। उस समय भारत सरकार ने आश्वासन दिया कि इस राज्य के लोग अपने स्वयं के संविधान द्वारा राज्य पर भारतीय संघ के अधिकार क्षेत्र को निर्धारित करेंगे । जब तक राज्य विधान सभा द्वारा भारत सरकार के फैसले पर मुहर नहीं लगाया जायेगा, तब तक भारत का संविधान राज्य के सम्बंध में केवल अंतरिम व्यवस्था कर सकता है। इसी क्रम में भारतीय संविधान में 'अनुच्छेद 370' जोड़ा गया, जिसमें बताया गया कि जम्मू-कश्मीर से सम्बंधित राज्य उपबंध केवल अस्थायी है, स्थायी नहीं।
धारा ३७० भारतीय संविधान का एक विशेष अनुच्छेद (धारा) है जिसके द्वारा जम्मू एवं कश्मीर राज्य को सम्पूर्ण भारत में अन्य राज्यों के मुकाबले विशेष अधिकार अथवा (विशेष दर्ज़ा) प्राप्त है। देश को आज़ादी मिलने के बाद से लेकर अब तक यह धारा भारतीय राजनीति में बहुत विवादित रही है। भारतीय जनता पार्टी एवं कई राष्ट्रवादी दल इसे जम्मू एवं कश्मीर में व्याप्त अलगाववाद के लिये जिम्मेदार मानते हैं तथा इसे समाप्त करने की माँग करते रहे हैं। भारतीय संविधान में अस्थायी, संक्रमणकालीन और विशेष उपबन्ध सम्बन्धी भाग २१ का अनुच्छेद ३७० जवाहरलाल नेहरू के विशेष हस्तक्षेप से तैयार किया गया था । स्वतन्त्र भारत के लिये कश्मीर का मुद्दा आज तक समस्या बना हुआ है

धारा 370 के प्रावधानों के अनुसार, संसद को जम्मू-कश्मीर के बारे में रक्षा, विदेश मामले और संचार के विषय में कानून बनाने का अधिकार है लेकिन किसी अन्य विषय से सम्बन्धित क़ानून को लागू करवाने के लिये केन्द्र को राज्य सरकार का अनुमोदन चाहिये।
इसी विशेष दर्ज़े के कारण जम्मू-कश्मीर राज्य पर संविधान की धारा 356 लागू नहीं होती।
इस कारण राष्ट्रपति के पास राज्य के संविधान को बर्ख़ास्त करने का अधिकार नहीं है।
1976 का शहरी भूमि क़ानून जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होता।
इसके तहत भारतीय नागरिक को विशेष अधिकार प्राप्त राज्यों के अलावा भारत में कहीं भी भूमि ख़रीदने का अधिकार है। यानी भारत के दूसरे राज्यों के लोग जम्मू-कश्मीर में ज़मीन नहीं ख़रीद सकते।
भारतीय संविधान की धारा 360 जिसके अन्तर्गत देश में वित्तीय आपातकाल लगाने का प्रावधान है, वह भी जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होती।
जम्मू और कश्मीर का भारत में विलय करना ज़्यादा बड़ी ज़रूरत थी और इस काम को अंजाम देने के लिये धारा 370 के तहत कुछ विशेष अधिकार कश्मीर की जनता को उस समय दिये गये थे। ये विशेष अधिकार निचले अनुभाग में दिये जा रहे हैं।
विशेष अधिकारों की सूची
1. जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के पास दोहरी नागरिकता होती है।

2. जम्मू-कश्मीर का राष्ट्रध्वज अलग होता है।

3. जम्मू - कश्मीर की विधानसभा का कार्यकाल 6 वर्षों का होता है जबकि भारत के अन्य राज्यों की विधानसभाओं का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है।

4. जम्मू-कश्मीर के अन्दर भारत के राष्ट्रध्वज या राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान अपराध नहीं होता है।

5. भारत के उच्चतम न्यायालय के आदेश जम्मू-कश्मीर के अन्दर मान्य नहीं होते हैं।

6. भारत की संसद को जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में अत्यन्त सीमित क्षेत्र में कानून बना सकती है।

7. जम्मू-कश्मीर की कोई महिला यदि भारत के किसी अन्य राज्य के व्यक्ति से विवाह कर ले तो उस महिला की नागरिकता समाप्त हो जायेगी। इसके विपरीत यदि वह पकिस्तान के किसी व्यक्ति से विवाह कर ले तो उसे भी जम्मू-कश्मीर की नागरिकता मिल जायेगी।

8. धारा 370 की वजह से कश्मीर में RTI लागू नहीं है, RTE लागू नहीं है, CAG लागू नहीं है। संक्षेप में कहें तो भारत का कोई भी कानून वहाँ लागू नहीं होता।

9. कश्मीर में महिलाओं पर शरियत कानून लागू है।

10. कश्मीर में पंचायत के अधिकार नहीं ।

11. कश्मीर में चपरासी को 2500 रूपये ही मिलते है।

12. कश्मीर में अल्पसंख्यकों [हिन्दू-सिख] को 16% आरक्षण नहीं मिलता।

13. धारा 370 की वजह से कश्मीर में बाहर के लोग जमीन नहीं खरीद सकते हैं।

14. धारा 370 की वजह से ही कश्मीर में रहने वाले पाकिस्तानियों को भी भारतीय नागरिकता मिल जाती है।

धारा ३७० के सम्बन्ध में कुछ  और विशेष बातें
१) धारा ३७० अपने भारत के संविधान का अंग है।

२) यह धारा संविधान के २१वें भाग में समाविष्ट है जिसका शीर्षक है- ‘अस्थायी, परिवर्तनीय और विशेष प्रावधान’ (Temporary, Transitional and Special Provisions)

३) धारा ३७० के शीर्षक के शब्द हैं - जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में अस्थायी प्रावधान (“Temporary provisions with respect to the State of Jammu and Kashmir”)

४) धारा ३७० के तहत जो प्रावधान है उनमें समय समय पर परिवर्तन किया गया है जिनका आरम्भ १९५४ से हुआ। १९५४ का महत्त्व इस लिये है कि १९५३ में उस समय के कश्मीर के वजीर-ए-आजम शेख महम्मद अब्दुल्ला, जो जवाहरलाल नेहरू के अंतरंग मित्र थे, को गिरफ्तार कर बंदी बनाया था। ये सारे संशोधन जम्मू-कश्मीर के विधानसभा द्वारा पारित किये गये हैं।

संशोधित किये हुये प्रावधान इस प्रकार के हैं-

(अ) १९५४ में चुंगी, केंद्रीय अबकारी, नागरी उड्डयन और डाकतार विभागों के कानून और नियम जम्मू-कश्मीर को लागू किये गये ।
(आ) १९५८ से केन्द्रीय सेवा के आई ए एस तथा आय पी एस अधिकारियों की नियुक्तियाँ इस राज्य में होने लगीं । इसी के साथ सी ए जी (CAG) के अधिकार भी इस राज्य पर लागू हुए।
(इ) १९५९ में भारतीय जनगणना का कानून जम्मू-कश्मीर पर लागू हुआ।
(र्ई) १९६० में सर्वोच्च न्यायालय ने जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध अपीलों को स्वीकार करना शुरू किया, उसे अधिकृत किया गया।
(उ) १९६४ में संविधान के अनुच्छेद ३५६ तथा ३५७ इस राज्य पर लागू किये गये। इस अनुच्छेदों के अनुसार जम्मू-कश्मीर में संवैधानिक व्यवस्था के गड़बड़ा जाने पर राष्ट्रपति का शासन लागू करने के अधिकार प्राप्त हुए।
(ऊ) १९६५ से श्रमिक कल्याण, श्रमिक संगठन, सामाजिक सुरक्षा तथा सामाजिक बीमा सम्बन्धी केन्द्रीय कानून राज्य पर लागू हुए।
(ए) १९६६ में लोकसभा में प्रत्यक्ष मतदान द्वारा निर्वाचित अपना प्रतिनिधि भेजने का अधिकार दिया गया।
(ऐ) १९६६ में ही जम्मू-कश्मीर की विधानसभा ने अपने संविधान में आवश्यक सुधार करते हुए- ‘प्रधानमन्त्री’ के स्थान पर ‘मुख्यमन्त्री’ तथा ‘सदर-ए-रियासत’ के स्थान पर ‘राज्यपाल’ इन पदनामों को स्वीकृत कर उन नामों का प्रयोग करने की स्वीकृति दी । ‘सदर-ए-रियासत’ का चुनाव विधानसभा द्वारा हुआ करता था, अब राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होने लगी।
(ओ) १९६८ में जम्मू-कश्मीर के उच्च न्यायालय ने चुनाव सम्बन्धी मामलों पर अपील सुनने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को दिया।
(औ) १९७१ में भारतीय संविधान के अनुच्छेद २२६ के तहत विशिष्ट प्रकार के मामलों की सुनवाई करने का अधिकार उच्च न्यायालय को दिया गया।
(अं) १९८६ में भारतीय संविधान के अनुच्छेद २४९ के प्रावधान जम्मू-कश्मीर पर लागू हुए।
(अः) इस धारा में ही उसके सम्पूर्ण समाप्ति की व्यवस्था बताई गयी है। धारा ३७० का उप अनुच्छेद ३ बताता है कि ‘‘पूर्ववर्ती प्रावधानों में कुछ भी लिखा हो, राष्ट्रपति प्रकट सूचना द्वारा यह घोषित कर सकते है कि यह धारा कुछ अपवादों या संशोधनों को छोड दिया जाये तो समाप्त की जा सकती है।
इस धारा का एक परन्तुक (Proviso) भी है। वह कहता है कि इसके लिये राज्य की संविधान सभा की मान्यता चाहिये। किन्तु अब राज्य की संविधान सभा ही अस्तित्व में नहीं है। जो व्यवस्था अस्तित्व में नहीं है वह कारगर कैसे हो सकती है?
जवाहरलाल नेहरू द्वारा जम्मू-कश्मीर के एक नेता पं॰ प्रेमनाथ बजाज को २१ अगस्त १९६२ में लिखे हुये पत्र से यह स्पष्ट होता है कि उनकी कल्पना में भी यही था कि कभी न कभी धारा ३७० समाप्त होगी । पं॰ नेहरू ने अपने पत्र में लिखा है-

‘‘वास्तविकता तो यह है कि संविधान का यह अनुच्छेद, जो जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा दिलाने के लिये कारणीभूत बताया जाता है, उसके होते हुये भी कई अन्य बातें की गयी हैं और जो कुछ और किया जाना है, वह भी किया जायेगा । मुख्य सवाल तो भावना का है, उसमें दूसरी और कोई बात नहीं है। कभी-कभी भावना ही बडी महत्त्वपूर्ण सिद्ध होती है।’’
जम्मू-कश्मीर में सशस्त्र विद्रोह में अब तक दस हजार से अधिक लोगों की जानें गयी हैं । कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा पालित उग्रवाद विभिन्न रूपों में मौजूद है । वर्ष 1989 के बाद से उग्रवाद और उसके दमन की प्रक्रिया, दोनों की वजह से हजारों लोग मारे गए । 1987 के एक विवादित चुनाव के साथ कश्मीर में बड़े पैमाने पर सशस्त्र उग्रवाद की शुरूआत हुई, जिसमें राज्य के अलगाववादी धड़े ने एक आतंकवादी खेमे का गठन किया, जिसने इस क्षेत्र में सशस्त्र विद्रोह में एक उत्प्रेरक के रूप में भूमिका निभाई ।  जिसमें सबसे अधिक उत्पीड़न कश्मीरी पंडितों का हुआ ।कश्मीरी पंडितों के साथ इतनी अधिक ज्यादती और अत्याचार हुए कि उन्हें अपनी मातृभूमि से पलायन कर देश के अन्य भागों में शरण लेनी पड़ी । दुर्भाग्य से इस पर न तो नेताओं के लब खुले न भारतीय मीडिया ने इस मामले को उस स्तर पर उठाया, जिस स्तर पर उठाना चाहिए था । जो मीडिया पेलेट गन के विरोध में है वो कश्मीरी पंडितों के मुद्दे पर अंधी और बहरी है । काश कश्मीरी पंडित भी राजनीतिक मुद्दा बनते । दलित और अल्पसंख्यकों की तरह ...काश.... एक वेमुला.... एक कन्हैया...... एक अख़लाक़ की तरह कश्मीरी पण्डितों पर भी राजनीति हुई होती, मीडिया कवरेज हुई होती और सेना पेलेट गन चलाई होती, तो आज 5 लाख कश्मीरी पंडित अपने आशियाने से दर-बदर न होते । पाकिस्तान के इंटर इंटेलिजेंस सर्विसेज द्वारा जम्मू और कश्मीर में अराजकता फैलाने के लिए मुज़ाहिद्दीनों के रूप आतंकियों भेजता रहा । आज तो कश्मीर व भारत के अन्य हिस्सों में आतंकवाद फैलाने के लिए पाक में अनेक आतंकवादी प्रशिक्षण केंद्र इंटर इंटेलिजेंस सर्विसेज व पाक सरकार की देख-रेख में चल रहे हैं । कश्मीरी युवाओं और अलगाववादी नेताओं को पाकिस्तान द्वारा बड़े पैमाने पर धन व हथियार मुहैया कराया जाता है ताकि वे कश्मीर में दंगे भड़काएं । भारत विरोधी गतिविधियाँ चलायें सुरक्षाबलों पर आत्मघाती हमले करें । बुरहानवानी पाक का नया प्यांदा था । उसकी मौत के बाद जो कश्मीर में हो रहा है । वह पूरी तरह पाक प्रायोजित है । वर्तमान सरकार को राजनीतिक इच्छा शक्ति दिखाते हुए पाकिस्तान और अलगाववादियों द्वारा पालित  भारत विरोधी विद्रोहियों पर कड़ी करवाई करनी चाहिए । बुरहानवानी के मामले में सरकार ने अलगाववादियों और पत्थरबाजों के घायल होने पर विशेष चिंतित दिखी । पर पत्थरबाजों के हमले में 4000 से अधिक सेना और पुलिस के घायल हुए जवानों पर  उतनी चिंता नहीं प्रकट की । वर्तमान में अधिसंख्य भारतीय मीडिया राष्ट्र विरोधी रिपोर्टिंग कर रही है। भारतीय सेना को क्रूर बता रही है। पेलेटगन से घायलों की चिंता सर्वोपरि है । पर पुलिस व सेना पर हमले, उनकी हत्या, उनके कैम्पों व पुलिस स्टेशनों को जलाने की घटनाओं पर मीडिया रिपोर्टिंग मामूली और पक्षपात पूर्ण है । वर्तमान भाजपा सरकार भी राजनीतिक दबाव में दिखी । तभी गृहमंत्री राजनाथ सिंह के बयान दबे– दबे से आये स्थिति बाद से बदतर हो गयी । बीएसऍफ़ को आख़िरकार लाना पड़ा । पत्थरबाजों पर नरमी भरी पड़ गयी ।इस मामले में भारत को अमेरिका, चीन रूस और इजरायल से सीखने की जरूरत है।कश्मीर मसला तभी सुलझेगा जब कोई राजनेता  राजनीतिक लाभ-हानि से ऊपर उठकर, राष्ट्र हित में साहसिक निर्णय लेगा ।उसे इसके लिए भी तैयार रहना होगा कि कश्मीर समस्या के लिए प्रधानमन्त्री का पद भी दांव पर लगाना पड़े तो वो तैयार रहे । हलाँकि मोदी जी बलूचिस्तान के मामले को उठाकर एक साहसिक व शानदार राजनैतिक कदम उठाया है. इस पर आगे बढ़ते रहने की जरूरत है । ये भारत के हित में है । 
 जम्मू और कश्मीर विधानसभा  में जारी सरकारी आंकड़ों के अनुसार यहां लगभग 3,400 ऐसे मामले थे, जो लापता थे । आतंकी घटनाओं , मुठभेड़ और आंदोलनों में जुलाई 2009 तक 47000 लोग मारे गए ।


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