बुधवार, 15 जून 2016

बलखाती थी नंगे पग चलती जाती थी




सिर पर लकड़ी का गट्ठर था,  वह हौले - हौले चलती थी
 जैसे - जैसे वह चलती थी ,पग नूपुर छम -छम बजते थे
 उसका चलना नूपुर बजना सुर ताल के जैसा था
बलखाती थी नंगे पग चलती जाती थी 
 सिर पर चढ़  आया था दिनकर, धूप से अवनी तब रही थी
चेहरे पर अजीब सी चमक भी थी 
आंखों में स्वाभिमान की जलकर भी थी, 
मस्तक से नासा तक उसके , परिश्रम का नीर था टपक रहा 
पर थमने का नाम नहीं , पग-पग वह बढ़ती जाती थी 
 बलखाती थी नंगे पग चलती जाती थी
 वह नारी थी, श्रमकारी  थी ,नंगे पर चलती जाती थी
 मारुत के ग्रीष्म थपेड़ों ने , उस के तिरपन को था शुष्क किया
 उसके तिरपन को देख मुझे कुछ ऐसा प्रतीत  हुआ 
शायद रुक जाए , शीतल हो जाए 
शायद वे मुझसे कहते हों - पय की क्षुधा व्याप्त मुझ में
 अल्प ही सही ,पर दे तो दो 
नारी की सारी भीगी थी, धड़कनें थी उसकी बढ़ी हुई 
सब बिटप उसे थे निहार रहे , जिसे डगर से थी वह गुजर रही
 शायद रुक जाए, शीतल हो जाये , फिर चाहे चली जाए 
बदन पसीने में डूबा , देख यह  तरु द्रवित हुए 
तरु झूमे बह निकला समीर का झोंका
 मिली हो राहत शायद उसको, पर रुकने का नाम नहीं
 हर पल वह बढ़ती जाती थी ,
बलखाती थी नंगे पग चलती जाती थी .
श्रमकारी नारी भारती
 जय भारती
 जय भारती 
जय भारती

poetpawan50@gmail.com

सम्पर्क- 7718080978

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