मंगलवार, 14 जून 2016

चवन्नी का मेला





जाड़े की शुरूआत हो चुकी  थी. धान की फसल तैयार थी , धान की  कुछ बालियाँ आधी हरी, आधी सुनहली  थी. कुछ बालियाँ पककर सोने जैसी होकर मेड पर पगडंडी की तरफ लटक रही थी .कुछ - कुछ बांस की बनी धनुष जैसी .ज्यादातर धान के हरे पत्ते पीले हो चुके थे. जो धान आगत थे. वे कुछ आदमियों और औरतों द्वारा हंसिए से रेते जा रहे थे . मेड़ों पर अभी भी हरियाली थी . मेले का मौसम शुरु हो चुका था . हर दूसरे - तीसरे दिन आसपास के इलाके के किसी न किसी भाग में  मेला लगता , किसी मंदिर , किसी नदी के किनारे , किसी बाग़ में , किसी ऊसर के  मैदान में , किसी पोखरे के पास , पुराने शिव मंदिर के पास , किसी  मठ  या देवस्थान  पर , कहीं न कहीं  मेला लगा ही रहता था . हर मेले के पीछे एक कहानी होती . गाँव के पुराने लोग बताते . इधर दो -तीन सालों से रामलीला मंचन भी कम हो गया है . वरना जहाँ भी रामलीला होती . वहाँ रामलीला के आख़िरी दिन मेला जरुर लगता . मेले के बीचो - बीच सजावटी कुर्सी लगती . जिस पर एक दूसरे के विपरीत दिशा में करीब 100 मीटर की दूरी  पर  राम रावण  बैठते  और मेला प्रबन्धन का इशारा होने प र, राम - रावण आपस में युद्ध करते .  6 -7 चक्कर  काटने के बाद राम अपने सरकंडे के बाण से रावण का वध कर देते . रावण कई बार सरकंडा नहीं लगने पर भी , राम के इशारे पर जमीन पर गिरकर  मर जाता और मेले में एक साथ जोर की आवाज़ होती . जय श्री राम,  कोई कहता- जोर से बोलिए - पुनः सब एक स्वर में जोर से बोलते - मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की जय हो . धर्म की विजय हो , अधर्म का नाश हो .कई धर्म भीरु बुजुर्ग राम बने नौजवान का पैर भी छूते . राम द्वारा रावण वध के बाद  भी मैंने  कई बार मेले में  राम - रावण को साथ में जलेबियाँ खाते और हँसकर बतियाये हुए भी देखा था . अचरज भी हुआ था . कट्टर दुश्मन अगर साथ में हँसते हुए जलेबियाँ खाएं तो, अचरज तो होगा ही . कई सालों गुजरने के बाद जब  मैं बच्चा नहीं रहा , तब समझ में आया .

 दुर्गा पूजा खत्म होते ही , हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी मेलों की भरमार थी . दूसरी तरफ फसल भी तैयार हो चुकी थी .तो हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी मेले का सीजन शुरु हो चुका था . गांव में मेला एक उत्सव की तरह होता है . एक खुशी के मौके की तरह .पूरा परिवार बूढ़े से लेकर जवान , बच्चे यहां तक की घर की औरतें व लड़कियां भी सज - धज कर मेला देखने जाती हैं. मेला देखना गांव में एक परंपरा,  एक संस्कृति सी है . एक पुरानी परंपरा , खुशियों भरी परंपरा , प्रत्येक गांव या कस्बे के पास एकाध मेला खास होता है .वहां उस गांव या कस्बे के लोग जरूर मेला देखने जाते हैं.  उसका भी कोई न कोई सांस्कृतिक व  सामाजिक कारण होता है .बूढ़े जवान हर कोई मेला जाता है , परंतु बच्चों के लिए हर मेला खास होता है. बच्चे एक भी मेला छोड़ना नहीं चाहते.  हर मेले में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना , चाट खाना , मूंगफली खाना, बांसुरी खरीदना, गुब्बारे फुलाना और सीटियाँ बजाना वे अपना हक समझते . यह अलग बात है कि पैसे के अभाव में अथवा किसी का साथ ना होने के अभाव में या फिर परिवार वालों की अनुमति न होने के कारण मेला  नहीं देख पाते या मेले में नहीं जा पाते , अर्थाभाव के कारण . इधर कई वर्ष बीत गये . मैं भी कोई मेला नहीं देख पाया था . मेलों का आधे से ज्यादा सीजन बीत चुका था . एकाध जगहों पर जहाँ रामलीला  हो भी रही थी .वो अपने अंतिम दौर में थी  और मेरे गाँव से काफी दूर भी .तभी मुझे  स्कूल में पता चला कि कल अलऊपुर का मेला है .इसी गांव में एक प्रसिद्ध कवि हुए थे  नाम था दानबहादुरसिंह पर लिखते थे ''सूंड फैजाबादी'' . जिनका अपना एक अलग ही इतिहास है .अलऊपुर वही ऐतिहासिक गांव है . जहां पर पहली बार हमने पिकिया नदी पर पुल देखा  था . मैंने इस पुल का बहुत नाम सुना था . पुल देखने में कैसा होता है . मैं जानना चाहता था .मुझे अलऊपुर का पुल देखने का शौक था. और वह इस पूरे इलाके का पहला पुल  है . मैंने अभी पिछले साल ही बाबू जी के साथ देखा  था . मैं साइकिल से उतर कर पुल पर पैदल भी चला था .  एकदम चिकना था .चकाचक . लिंटर लदा था . रेलिंग के  पास खड़े होकर  मैंने नीचे पिकिया नदी को भी निहारा था . थोड़ी झांवर आयी थी , पर अच्छा लगा था .ठीक नदी के बीचो - बीच  आसमान में खड़ा  होना और दूर नीचे धीरे - धीरे बहती हुई नदी  देखना , मेरा रोम -रोम रोमांच से भर गया था . मैं पुल से नीचे की तरफ नदी को तब तक निहारता रहा जब तक बाबू जी ने आवाज़ न दे दी . चलो देर हो रही है .देख लिए न , नदी ही तो है  .
 कल उसी अलऊपुर में मेला लगने वाला था . मेरे दोस्तों ने मेला जाने की पूरी योजना तैयार कर ली थी . बात मुझ तक पहुंची तो मैंने सोचा ,  इस वर्ष मुझे एक भी मेला देखने का मौका नहीं मिला .कल का मेला जरूर देखने जाऊंगा . कल रविवार है छुट्टी भी है .स्कूल से छुट्टी होते ही मैं सीधा नाक की सीध में तेज कदमों से घर की ओर बढ़ चला . रोज की अपेक्षा आज जल्दी घर पहुँच गया . दीदी देखते ही बोली - आज बड़ी जल्दी घर आ गये. मैंने दीदी की बात अनसुनी करते हुए आगे बढ़ दालान के कोने में बस्ता पटक कर सीधा आंगन में पहुंचा .जहाँ अम्मा कहतरी और मथनी लेकर दही और साढी [मलाई] मथने की तैयारी  में थी . मैं तपाक से हांफते हुए बोला. अम्मा कल मुझे मेला जाना हैं . जल्दी से मेरा कुर्ता पायजामा धो दो . इतना बोलकर मैं कुर्ता उतारने लगा .अम्मा कहतरी में खईलर[मथनी ] रखते हुए बोली - कल ऐतवार है कल धो दूंगी . मैं क्रोध से भर गया . चिढ़ते हुए बोला - कल धोवोगी तो सूखेगा कब,  इस जाड़े में,  कल मुझे अलऊपुर का मेला जाना है . अब अम्मा के कान में ठीक से आवाज़ पहुँची.  अम्मा बोली - तुम्हारे बाबू जी से पूछे और फिर पैसा कहाँ  है . मैंने झट से कहा- बाबू जी से तुम कह देना और मुझे इस बार पैसे नहीं रूपये चाहिए. इतना कहकर मैं जन्घियाँ पहने हाथ में कुर्ता पायजामा लेकर नल की तरफ बढ़ गया . जैसे - तैसे मलमल कर एक साबुन के पड़े छोटे पुराने टुकड़े से कपड़े धोकर नीम के पेड़ से बंधी रस्सी पर डाल दिया . ताकि कल सुबह  या दोपहर तक सूख जाए .
अगले दिन कपड़ा पहन कर तैयार हुआ और अम्मा को बोला मेला जाना है मेरे स्कूल के साथी भी जा रहे हैं रूपये चाहिए हमें . अम्मा बोली पैसे नहीं है. मैंने कहा - पैसे नहीं, रूपये चाहिए. डेढ़ रूपये से कम नहीं. अम्मा बोली - मेला नहीं जाना है . तुम्हारे बाबू मना किये हैं .मिट्टी का तेल लाना है. पैसे होते तो मिट्टी का तेल आता. देर रात तक तुम्ही लालटेन जलाते हो . मेला अगले साल देखना . गुस्से और विवशता के बीच आँख डबडबा आयी . मैं जिद पर अड़ गया . सिसकते हुए बोला -  मुझे मेला जाना है. मैं कुछ नहीं जानता . मुझे सिर्फ पैसे चाहिए.  अम्मा बोली -  तो जाओ , जहां पाओ ले लो. मेरे पास क्यों आये ? मेरे पास,  मेरे बचत के 15 पैसे थे .  बहुत ढूंढने पर घर की आलमारी में 10 पैसे मिल गये. कुल मिलाकर अब मेरे पास 25 पैसे हो गए थे. मैं आख़िरी उम्मीद लेकर  दीदी के पास गया . बोला - दीदी तुम मुझे मेला देखने के लिए अपने गोल्लक से निकाल कर एक रुपया दे दो . मैं तुम्हारे लिए मेले से चाट लेकर आऊंगा. पर दीदी चाट के झांसे में नहीं आयी . दीदी ने साफ़ मना  कर दिया .मैंने द्वार की तरफ देखा सूरज भगवान् बूढ़े हो रहे थे . अंदर धड़कन की धुकधुकी बढ़  रही थी . चारों तरफ से ना हो गया .अंत में मैंने निर्णय लिया . मैं मेला जाऊंगा और 25 पैसे में ही मेला करके आऊंगा .


पैसे का जुगाड़ करने के चक्कर में मुझे काफी देर हो चुकी थी .  मित्र  इन्तजार कर जा चुके थे . मैं पिंटू ,रिंकू, होली, बुधई  सबके घर गया .पर घर पर कोई नहीं मिला . मैं थोड़ा हताश सा हो गया था . एक पल के लिए मन में आया मेला  न जाऊं . फिर सोंचा वापस घर गया तो दीदी और घर के लोग मजाक उड़ायेंगे . बस फिर क्या ?मेले की दिशा में कदम बढ़ चले . गाँव लाँघ कर बाग़ में पहुँचा तो लगा जल्द ही अँधेरा हो जाएगा . क़दमों को मैंने दौड़ना शुरूकर दिया . धडकने बिना कहे ही दौडनें लगीं . मुँह बेचारा हांफने लगा.  पर इसका परिणाम ये हुआ कि मैं अब मेले को जाने वाली पगडंडियों पर आ गया था .यहाँ से देखने पर सूर्यनारायण थोड़े तेजस्वीलग रहे थे .  एक पल के लिए ठहरकर मेले की दिशा में देखा . तभी मुझे एहसास हुआ कि जाड़े के इस मौसम में मेरा कुर्ता गर्म हो गया है और कान के पास कुछ रेंग रहा है, हाथ लगाया तो पता चला पसीना जी थे . अब मैं पगडंडियों के रास्ते से मेले की तरफ तेज कदमों से बढ़ रहा था . मैंने देखा सामने से मेलाकरों का झुण्ड मस्ती में कोलाहल करते, सीटियाँ बजाते ,हाथों में खिलौने लिए, कुछ बूढों के हाथों में सब्जिया भी थी . एक आदमी गन्ना भी लिए  आ रहा था .  लोगों को लौटते देख मेरा दिल बैठा जा रहा था . मैं उनके सामने नहीं पड़ना चाह रहा था . पर दूसरा रास्ता भी नहीं था. बगल में हाँ का खेत था उसमें भी पानी भरा था . मेरे मित्र भी मेला करके वापस गांव की तरफ आ रहे थे . मुझे देखकर वे चौंक पड़े , अरे पंकज तुम , अब मेला जा रहे हो.  हम तो मेला घूमकर घर जा रहे हैं . हमने तुम्हारा बहुत इंतजार किया, परंतु जब तुम काफी देर तक नहीं आए और हमारी धड़कनों की गति और बढ़ गई ,फिर  ना तो तुम्हारा कोई संदेश ही  मिला. तो हम लोग चल दिए. हम सोचे शायद तुम्हारे बाबूजी न जाने दें . होली की इतनी बात सुनकर मैं बिना बोले आगे चल दिया . बिना पीछे मुड़कर देखे मैंने अपनें कदमों की रफ्तार बढ़ा दी  . मैं मेले के करीब पहुंचकर दौड़ने लगा . हाँफते - हाँफते  मैंने मेले में प्रवेश किया . पूरा मेला घूम डाला . परंतु 25 पैसे में ढंग का सिर्फ कोई एक सामान  ही ले सकता था , किन्तु  मैं कई सामान लेना चाहता था . 25 पैसे में मेरी इच्छा पूरी होनी मुश्किल लग रही थी . मैं मेले में सजी - धजी दुकानों को देखकर मेले की चहल-पहल में खो गया . मैं मेले में घूमता रहा ,घूमता रहा और मन ही मन आनंदित होता रहा . इससे समय का मुझे पता ही  नहीं चला.  शाम होने लगी थी . धीरे - धीरे  मेला उठना भी शुरू हो चुका था. काफी सोचने के बाद मैंने लाल रंग की  पांच पैसे की गगरी खरीदी [ पानी से भरा गुब्बारा साथ में रबर की डोरी ] सीटी वाले ने 15 पैसे की सीटी 10 पैसे में दे दी.  क्योंकि ये उसकी आख़िरी सीटी थी और मेला भी उठ रहा था . मैंने सोंचा चलो  मेले के आखिर में आने का  फायदा भी तो हुआ .  अब मेरे पास 10 पैसे शेष रह गये थे . मेले में टहलते हुए चकर - मकर देखे जा रहा था  कि , 10 पैसे में खाने वाली क्या चीज मिल सकती है ? पर कुछ ख़ास नजर नहीं आ रहा था .चाट तो कब का खतम हो चुका  था . मूंगफली वाला अपना नन्हा तराजू बोरी में रख रहा था. हाँ जिलेबी वाले की परात में 2-3 छत्ते जिलेबियां मक्खियों के लिए जरुर पड़ी थी . मैं मेले के आख़िरी छोर पर टहलते -टहलते आ पहुँचा था  तभी मेरी नजर साइकिल वाले पर पड़ी .  जो  थकी - थकी सी आवाज़ में रुक - रुक कर बोल रहा था . संतरे वाला , गुलाब वाला , डंडे वाला  लेमनचूस ले लो , खुद  भी खाओ , बच्चों को भी खिलाओ , बच्चे की माँ को भी खिलाओ . मैं झट से लेमनचूस वाले की तरफ बढ़ चला . मैंने झट से 10 पैसे का गोल धारीदार अल्यूमिनियम का चमकता सिक्का बढ़ा दिया . साइकिल के हैन्डल में खोंसे डंडी वाले लेमनचूस की तरफ मैंने इशारा किया और अगले पल वो मेरे हाथों में था . अब मेरी खुसी का ठिकाना नहीं था . इतना सामान खरीद कर मेले से गुनगुनाते हुए चल दिया . लेमन चूस चूसते हुए , गगरी हिलाते हुए, बीच - बीच में रास्ते में सीटी भी बजा लेता . आराम से मौजते हुए घर आ गया .
घर में जैसे ही घुसा . दालान में गगरी हाथ से छूटकर गिर गई और फूट गई . बेचारी गगरी  फूटने की लज्जा से सिकुड़ कर अपने में सिमट गयी . अब वह गगरी की उपमा से मुक्त होकर फूटा हुआ गुब्बारा थी . बरामदे की सूखी, पर थोड़ी सिमसिम जमीन पर  उस गगरी का पानी बिखर गया . मेरा चेहरा फक पड़ गया . जैसे किसी ने उस गगरी को मेरे मुँह पर दे मारा हो और वह फट गयी हो . मेरी आंखें भर आई . मैं दीदी को खुश होकर बताना चाह रहा था कि मैं मेला कर आया. पर यह खुशी गगरी के फूटने के साथ ही काफूर हो गई . मैं स्तब्ध था . चेहरे पर न जाने कहां से एक उदासी छाई हुई थी. जो हटने का नाम नहीं ले रही थी .   रोना आ रहा था पर न जाने क्यों रो भी नहीं पा रहा था . तभी घर में से दीदी बाहर की तरफ आयी . दीदी ने मेरा चेहरा देखा तो वह देखती रह गई . उन्होंने थोड़ी देर तक शांत रहने के पश्चात कहा -  मुझे मालूम होता कि तुम 25 पैसे लेकर मेला चले जाओगे तो , मैं तुम्हें गोलक तोड़ कर पैसे दे देती . भाई से बढ़कर पैसा नहीं . लेकिन मुझे पता नहीं कि तुम इतनी हिम्मत करके इतनी दूर अलऊपुर अकेले मेला देखने चले जाओगे . वैसे भी 25 पैसे में क्या मिला होगा ?  मैंने झट से जेब में हाथ डाली और अपनी सीटी मुंह में लगाकर जोरदार फूंक  मारी और सीटी ने एक  जोर की आवाज की और फिर मैंने दूसरे हाथ में पकड़ा हुआ डंडी वाला लाल रंग का थोड़ा चूसा हुआ लेमनचूस दिखाया और दीदी की होठों पर एक मुस्कान दौड़ गयी.  उन्होंने तेजी से दौड़ कर मुझे गोद में उठाना चाहा, कि गगरी के गिरे हुए पानी ने उनका काम तमाम कर दिया . उनको बचाने के चक्कर में मैं भी धराशायी हो गया  और हम दोनों भाई बहन उस गीली मिट्टी में लोट-पोट हो गए . उसके बाद  एक पल के लिए दोनों कराहे , पर अगले पल एक दूसरे को देखकर हँस दिए .  मेरा कुर्ता  जो कल ही मैंने धोया था . मिट्टी से सन गया था .शरीर गलने लगा था . लेकिन जीवन के इस पल में , अंदर एक खुशी का समंदर हिलोरे मार रहा था . गालों में , कपड़ों में,  हाथों में ,  गीली मिट्टी के साथ  हम दोनों हंस रहे थे . आज  भी  उस दिन की बात याद कर भावनाओं का ज्वार मेरी आंखों को गीला कर देता है . लेकिन कुछ भी हो जो सुख मैंने उस दिन ,  मेले में सिर्फ 25 पैसे में हासिल किया था वह सुख बाद में सैंकड़ों रुपए खर्च करके भी हासिल नहीं कर सका .
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