गुरुवार, 9 जून 2022

है बना काल यह

है बना काल यह कितनों का काल है

हाल कितने  ही  लोगों का बेहाल है

दुःख भी आते हैं  आकर चले जाते हैं

ये  बड़ा  ढीठ  है  साल  दर  साल है

 

शब्द कम पड़ रहे  कितने दर उजड़े हैं

कितने मजदूरों के कितने घर उजड़े हैं

रुग्णता से तो कम  भय से ज्यादा मरे

जग के हर कोने  में नारी नर उजड़े हैं

 

आँसू कितने गिरे इसकी गिनती नहीं

जो हैं सक्षम वे सुनते हैं विनती नहीं

थोड़े नैतिक,मनुजता जो रखते सभी

ज़िंदगी  बेतहाशा  यूँ  छिनती   नहीं  

 

रोम  की  बाँसुरी  याद  आती  रही

बढ़ते  ही  शव  रहे साँस जाती रही

कुछ को तो अग्नि कुछ को जमी ना मिली

प्रकृति  औकात  हमको  बताती रही

 

अब से भी संभले यदि तो सम्भल जायेंगे

हाथ में हाथ हो तो निकल जायेंगे

अपने परिवेश को अपनी सरकार

स्वच्छ रखेंगे फिर से निखर जायेंगे

 

 

पवन तिवारी

१७/०८/२०२१     

 

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