शुक्रवार, 15 अप्रैल 2022

नदियों के भी उर फाटे हैं

नदियों के भी उर फाटे हैं

देख दरारें आया हूँ

जंगल की ग्रीवा काटे हैं

लतपथ देख के आया हूँ

 

हवा की साँसें फूट रही हैं

घुटते देख के आया हूँ

पानी का चेहरा मटमैला

आँसू देख के आया हूँ

 

दुबके – दुबके जुगनू देखे

अधियारों से आया हूँ

डरते हुए प्रात को देखा

किस दुनिया में आया हूँ

 

नैतिकता अब बूढ़ी दिखती

उसके घर हो आया हूँ

स्वारथ का पागलपन देखा

जान बचाकर आया हूँ

 

खादों की मनमानी देखी

खेत से होकर आया हूँ

गाँवों की नादानी देखी

बाग़ से मिलकर आया हूँ

 

अनदेखा कर दूँ क्या देखूँ

किस-किस दृश्य से आया हूँ

हँसते-हँसते गाँव गया था

रोते - रोते   आया  हूँ

  

पवन तिवारी

०१/०४/२०२१

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