मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

पहली कविता की कहानी



 आज अचानक मन हुआ, अपनी पहली कविता की कहानी आप सब से साझा करूँ. जाने क्यूँ ? बिस्तर पर लेटा था, अचानक विचार आया और विस्तर को छोड़ कुर्सी पर विराजमान हो गया. जैसे लिखने की बहुत जल्दी हो. अपनी पहली कविता की कहानी, शायद इसीलिए मेज पर बिखरी तमाम चीजों के बीच हड़बड़ाकर खोजा, एक दुबली पतली, सहमी मासूम कलम. हाँ, मेरी पहली कविता जितनी मासूम. सामने पड़े नये और कोरे कागजों के सलीकेदार गत्तों को बेतकल्लुफ़ी के साथ झट से उठा लिया, और फिर क्या ? उस मासूम कलम से कोरे कागजों के सफेद ह्रदय पर पोतने को बेताब होने लगा, मेरी पहली कविता की कहानी वाली नीली स्याही. मैंने सोचा, कैसे आरंभ करूँ ? मेरे बचपन और किशोरावस्था के बीच वाले जीवन की ये मासूम संवेदनात्मक कहानी. मेरी चौथी – पाँचवीं कक्षा की किताबों में जिस तरह से कहानियों का आरंभ होता था, बेहद बचपन की मासूमियत की तरह, कुआ उसी तरह मैं अपनी इस कहानी का भी आरंभ करूँ . कुछ देर सोचने के बाद विचार आया कि, क्यों नहीं ? उस समय हम भी तो मासूम थे. बारह साल के रहे होंगे. थोड़ा - मोड़ा कम या ज्यादा. आखिरकार मैंने शुरू किया. बहुत साल पहले की बात है. जब मैं बहुत छोटा होता था. थोड़ा - थोड़ा बच्चा था और थोड़ा बड़ा होने वाला था. आज की तरह थोड़ा समझदार और प्रौढ़ नहीं था. मेरा कहीं भी कवियों लेखकों में नाम नहीं था. हाँ, आज की तरह कभी कुर्सी और मेज की सहायता से लिखा नहीं था. कभी कुर्सी पर बैठा भी नहीं था. उन दिनों को सोचता हूँ तो याद आती है, मेरी पहली कविता की कहानी और मेरी आँख भर आती है. जब उस क्षण को सोचता हूँ. जब आग के पास लकड़ी के तख्ते पर पालथी मारकर मेरे बाबूजी ने मेरी अम्मा को मेरी पहली कविता की कहानी सुनाई थी. उसके एक दिन बाद अम्मा ने वह कहानी मुझे सुनाई थी. जो कहानी अम्मा ने जैसे मुझे सुनायी थी. वो कहानी वैसे ही, बस अपने शब्दों में, आपको सुनाता हूँ. सच्ची कहानी है. अगर ठीक से अच्छी कहानी न लगे तो, माफ कर देना. ठीक यह मानकर कि ये कहानी आज का प्रौढ़, समझदार और प्रसिद्ध हो चला लेखक नहीं बल्कि एक 12 साल का लड़का, जिसके अंदर अभी थोड़ी सी मासूमियत बची है वो सुना रहा है. हाँ, तो सुनाता हूँ मैं.......
सुबह - शाम पड़ने वाली ठंडी थोड़ी - थोड़ी शुरू हो गई थी. हम 10 दिनों से चद्दर की जगह कम्बल ओढ़ने लगे थे. सुबह आठ बजे तक हल्की ठंड लगती थी. फिर धीरे - धीरे गर्मी बढ़ने लगती थी. तो मैं अपनी आधी बाँह का स्वेटर निकाल कर कहीं भी फेंक देता था. एक महीना पहले ही गाय बछड़े की अम्मा बनी थी. सो दूध दे रही थी. इसलिए काली गुड़ वाली चाय की छुट्टी हो गई थी, हम सभी भाई - बहन गोरी चाय सवेरे - सवेरे पाकर खुश हो जाते थे. सुबह का नाश्ता चाय रोटी होता था. बड़ा मजा आता था. भले ही कुर्ते पर चाय की दाग बढ़ती जाये. ऐसे ही एक दिन मन हुआ दूध भात खाने का, कहीं से खेल कर दौड़ते हुए सीधे आँगन आया. बदन में गरमी फ़ैल गयी थी. सो आधी बाँह का का लाल वाला स्वेटर जल्दी से निकाल कर फेंक दिया और अम्मा से बोला- अम्मा भूख लगी है. आज दूध भात खाऊँगा. जल्दी दो. अम्मा बर्तन मांज रही थी. बाल्टी के पानी में दो - तीन बार हाथ डुबा कर अम्मा ने ओढ़ी हुई शाल में पोछते हुए बोली- स्वेटर काहें निकाल दिए. ठंडी लग जाएगी बबुआ . मैंने कहा- मुझे नहीं लगेगी. मुझे गरम लग रहा है. अब मैं बड़ा हो गया हूँ. मुझे दूध भात दे दो. श्याम भी दूध भात खाता है. मैंने आज देखा, वह चाय रोटी नहीं खाता. अम्मा हँसते हुए बोली- अच्छा तो श्याम को दूध भात खाता देख कर दूध भात खाने का मन हुआ ठीक है. अच्छा बोरे पर बैठ जाओ. मैं धम्म से जाकर बोरे पर बैठ गया. कुछ ही देर में अम्मा रसोई से बड़ा वाला कटोरा हाथ में थामें आ गयी. उसमें दूध भात था. दूध ज्यादा था. ऊपर से इक्का - दुक्का ही बात दिख रहा था. मैं बहुत खुश था. कटोरा सामने पाते ही खाना शुरू कर दिया.अम्मा की आँख रोज की तरह आज भी मेरे हाथ पर गड़ गयी. अम्मा बोली- कितनी बार कहीं हूँ बाएं हाथ से खाना नहीं खाते. दोष लगता है. दाहिने हाथ से खाते हैं. मैंने झट से बाएं हाथ को बोरे में रगड़ दिया और नए वाले हाथ, मतलब दाहिने हाथ को कटोरे मेंडुबा दिया, अब अम्मा फिर बोली- बाबू एक बात पूछू, मैंने सिर उठाकर अम्मा को घूर कर देखा. फिर बोला- का पूछोगी अम्मा ? अम्मा बोली- एक बात. हम बोले- ठीक है, पर एक ही पूछना. बाद में दो - तीन नहीं चलेगा. अम्मा हँस दी. मैं बोला- हँसो मत. तुम एक बात बोलकर हरदम चालाकी से तीन - चार पूछ लेती हो और हाँ, अगर एक से ज्यादा पूछी तो जान लेना ! इस दूध - भात के बाद, तब मैं चाय रोटी भी खाऊंगा. समझ लो हाँ, अम्मा की हँसी फूट पड़ी. सो दांत दिखने लगा और पता चल गया कि आज भी अम्मा ने सुबह - सुबह पान खा लिया है. हमारी अम्मा पान बहुत खाती हैं. डाक्टर ने मना किया है. पर मानती ही नहीं. बाबू जी खुद ही खाते हैं, फिर अम्मा को बोलेगा कौन ? एक बार अम्मा के मुँह में बड़ा घाव हो गया था. तब से पान खाना कम कर दी थी. पर अब फिर शुरू हो गयी हैं. हाँ तो हम क्या कह रहे थे. हाँ याद आ गया... हाँ तो हमारा अम्मा बोली- ई बताओ ? तुम कविता – वबिता भी कुछ लिखते हो !इतना सुने कि थोड़ा सा ही मगर मुँह का दूध भात उल्टा कटोरा में आकर गिर गया. या समझते ही मैंने मुँह बंद कर लिया, नया वाला दाहिना हाथ कटोरे और मेरे मुँह के बीच में अंगुलियों पर भात का भार रोक कर ठहर गया. भात से लगा दूध वापस बूँद - बूँद कर कटोरे में चूने लगा. हमारे मुँह का भाव देखकर अम्मा बोली- डरो मत. डरने की कोई बात नहीं, तुम्हारे बाबू बता रहे थे तुम्हारी कबिता अखबारे में छपी है. तुम्हरी फोटू के साथ. इतना सुनना था कि मैं भात खाना छोड़ कर, झट से खड़ा हो गया और फिर आँगन में रखी बाल्टी के पानी में अम्मा की तरह अपना झूठा हाथ तीन - चार बार फटाफट डुबा के कुर्ते में पोंछ झट अम्मा के पास आ गया. पता नहीं क्यों मैं अचानक गाय हो गया .मतलब एकदम सिधवा अर्थात एकदम सीदा-सादा . अम्मा को चोना - मोना { दुलार } लगाते हुए बोला- जल्दी बतावा अम्मा, ऊ अखबारवा कहाँ है ? अम्मा बोली- पता नहीं, कल तो पियरके [ पीले ]कुर्ता में रखे थे. इतना सुनते ही मैं गौरैया चिरई की तरह फुर्र होकर मड़ई [ छप्पर ] में आ गया. सीधे खूँटी में टंगे पीले कुर्ते की थैली पर धावा बोल दिया. खोजने पर तीसरी थैली में मुड़ा – तुड़ा सर्दी से सहमा एकदम गरीब जैसा, जाड़े का सताया जैसा, छोटा सा फटा हुआ अखबार का टुकड़ा मिला. उसमें मेरी छोटी सी फोटू छपी थी. मेरे बालों से धनिया की चटनी की महक आ रही थी. कोने में तेल की गंध बैठी थी. छोटे- छोटे बच्चे जैसे काले अक्षर में मेरी कविता “काले बादल नीले बादल” शीर्षक से छपी थी. कविता के के ख़त्म होने के बाद उसके नीचे बायीं ओर थोड़ा गाढ़ अक्षर में लिखा था-
पंकज चिंतामणि तिवारी
कक्षा – 5, ग्राम,पोष्ट – अलाउद्दीनपुर,
तहसील – टांडा, जनपद – फैजाबाद.
आखिर तक पढ़ते- पढ़ते पता नहीं क्यों मेरा सीना जोर - जोर से धड़कने लगा. हाथ भी काँपने लगा और होठ भी. बहुत खुशी के साथ एक अंजाना सा भय भी बदन में घुस गया था. फिर भी हिम्मत किया और परिणाम ये हुआ कि अखबार का टुकड़ा बाबूजी के कुर्ते की थैली से मेरे कुर्ते की थैली में आ चुका था. सो मैं घर से फरार हो गया. पीछे से अम्मा दौड़ते हुए आयी और बाबू - बाबू दो बार उनकी आवाज़ मेरे कानों में सुनायी दी. उसके बाद अम्मा कितनी बार मेरा नाम लेकर पुकारी होंगी पता नहीं . तत्कालीन सच तो ये था कि मैं मारे खुसी के सनक गया था. इस सनक में बाग़, खेत, खलिहान, उत्तर वाला पोखरा, अयोध्या जाने वाली सड़क सहित पूरे गाँव का चक्कर लगा आया, पर समझ में नहीं आया कि अपनी ई बहुत बड़ी वाली खुशी कैसे और किसे बताऊँ कि मेरी कबिता अखबार में फोटू के साथ छपी है. कोई मानेगा कि नहीं, चलो मान भी लिया फिर ध्यान आया, नाम और फोटो दोनों है मानेगा क्यों नहीं ? पर इसकी क्या गारंटी है कि मेरा मजाक नहीं उड़ायेगा या किसी को बताएगा नहीं. यह सब सोचकर पसीना - पसीना हो गया. सोचता रहा और पूरे सिवान का चक्कर भी लगाता रहा. जो भी दिखायी देता, ऐसा लगता जैसे वह मुझे सक से देख रहा है और मैं भी उसे सक से ही देखता. जो भी गाँव का या परिचित दिखायी देता, मन एक बार जरूर कहता इन्हें अपनी कबिता दिखाऊँ, फिर अगले ही पल मन में आता, नहीं इन्हें नहीं दिखाऊँगा, ये भी मेरा मज़ाक उड़ायेंगे और पूरे गाँव में ढिंढोरा भी पीट देंगे. एक बार मैंने बरुण चाचा को अपनी कबिता दिखाई थी. वे बाबू जी को जाने क्या बोल दिए थे कि बाबूजी हरजोत्ता [ हल चलाते समय किसान के हाथ का डंडा ] से बहुत मारे थे. कुर्ता फट गया था. पीठ का चमड़ा भी कट गया था. कुर्ते में खून का दाग पड़ गया था. अम्मा मेरी पीठ देखकर रो दी थी. कई दिन तक अम्मा ने हल्दी, प्याज सरसों के तेल में भूज के लगाई थी. अगले दिन पाठशाला भी नहीं गया था. अम्मा बाबू जी से नाराज हो गयी थी. तीन दिन तक बाबूजी से बोली नहीं थी. मेरा घाव ठीक होने में पन्दरह दिन से जादा लग गये थे. इसी कारण मुझे किसी पर विश्वास नहीं था. इन्हीं विचारों के साथ चल - चल के थक गया. होठ, गला दोनों सूखने लगा. भूख भी लग गयी. आखिरकार बाग में मोरया के नल पर नल चला – चला कर अजुरी – अजुरी ख़ूब पानी पिया. इतना कि चलने पर पेट में पानी हिलने का पता चल रहा था. इस उमर की भूख पागल, सनकी से कम नहीं होती. जो दिखा, जिसका दिखा टूट पड़ते बिना कुछ बिचारे. क्योंकि बिचार तो भूख लेके भाग जाती है बड़े वाले घोड़े की तरह. सो लपक कर बाग़ के बाहर वाले गन्ने के खेत से एक गन्ना तोड़ा, किसका खेत था पता नहीं, पर मेरे गाँव का ही किसी का था. इसे छोटी सी डकैती कह सकते हैं. पर इस तरह की डकैती गाँव में मेरी उम्र के लड़कों के लिए आम है. इस तरह की डकैती कई बार मैंने अपने दोस्तों से खुद अपने ही खेत में पहले करवायी थी. अब गन्ना चूसते हुए हताश - निराश घर की ओर थके पैरों से धीरे - धीरे आने लगा. अपने घर से पहले पड़ने वाली गली में रिंकू दिख गया. वह भी पाँचवी में मेरे साथ ही गाँव की पराइमरी में पढ़ता था. पर अभी भी अक्षर जोड़ - जोड़ के ही पढ़ता है. फिर भी मेरा साथी था. सो मैंने सोचा, चलो इसे बता देते हैं. बदमाशी में मुझसे थोड़ा ही आगे होगा. गाँव के सब कहते हैं बहुत बदमास है. जो उससे झगड़ा करता है. गाली देता है. वो उसे कुछ नहीं कहता. बस उठा के पटक देता है और सीने पर बैठकर गाल पर बहुत तमाचा मारता है. पर मेरा दोस्त है. गणित में नकल तो मैं ही करवाता हूँ. सो मैंने निश्चय किया कि इसे बता ही दूँ, लेकिन मैंने एक सावधानी बरती, मैंने उससे कहा- रिंकू भाई मैं तुम्हें एक बहुत भारी बात, मतलब एक जबरदस्त बात बताना चाहता हूँ. रिंकू ऐसा सुना तो बोला- जल्दी बताओ इसमें लेकिन क्या ? मैंने कहा- देखो दोस्त, बता तो दूँगा, पर पहले तुम बिद्यामाई की कसम खाओ. किसी को नहीं बताओगे. रिंकू ने ऐसा सुनकर कहा- देखो भाई, इतनी बड़ी कसम नहीं खाऊँगा. कोई दूसरी कसम बोलो खा लूँगा, तुम्हारी कसम, मैंने कहा- ई बेइमानी है. तब जाने दो, तुम्हारा भरोसा नहीं. अब रिंकू से भी रहा नहीं जा रहा था. मैं घर की और जाने के लिए आगे बढ़ा तो उसने हाथ पकड़ लिया और बोला- अच्छा चलो कसम खाता हूँ. किसी को नहीं बताऊँगा. मैंने कहा- मुझे उल्लू बना रहे हो. ऐसे नहीं, सिर पर हाथ रखकर बिद्यामाई की कसम खाओ. तब बताऊँगा. रिंकू उदास हो गया और फिर कांखते हुए बोला- चलो ठीक है. आखिरकार रिंकू ने बिद्यामाई की कसम खायी और मैंने अखबार की कतरन कुर्ते से निकाल कर उसे झट से दिखायी. जैसे मैंने कहा- देख अखबार में मेरी फोटो छपी है. उसकी भी ऑंखें फटी रह गयी, उसने अचरज जताते हुए कहा- यार तुमने किया क्या ? जो तुम्हारी फोटो अखबार में आ गयी. पूरे गाँव की बदनामी होगी. मैंने कहा गाँव का नाम होगा बदनामी नहीं. मेरी कबिता छपी है इसलिए. फिर रिंकू ने मिला - मिला कर मेरी कबिता पढ़नी शुरू की. काले बादल नीले बादल..... फिर उसने उदास होकर कहा- तूने तो कहा था जबरदस्त बात है. मैंने कहा- क्यों जबरदस्त बात नहीं है. फिर उसने कहा- अच्छा ठीक है. इसके बदले में क्या खिलाएगा ? मैंने कहा- लेमन चूस. रिंकू डपटते हुए बोला- बक, जबरदस्त चीज के लिए तो जबरदस्त चीज खिलानी पड़ेगी. मैंने कहा -बोलो क्या खाओगे ? रिंकू बोला- जिलेबी और चाट. मैंने कहा- मेरे पास इतना पैसा नहीं है. 10 पैसा है, बोल तो डंडा वाला लेमनचूस खिला सकता हूँ या फिर असनारा का जब मेला पड़ेगा, तो उसमें चलना खिला दूँगा. रिंकू बोला- ठीक है. पर अभी १० पैसा निकाल. मैंने जेब से 10 पैसे निकाले. उसने मेरे हाथ से झट से दस पैसे छीनने वाले अंदाज में ले लिये और मेरे हाथ में अखबार रखते हुए पता है क्या बोलकर भागा, तो पूरा बेवकूफ है. इतना कहकर मेरे 10 पैसे लेकर चंपत हो गया और मैं मुँह लटकाए चुपचाप घर की तरफ चल दिया. गुस्से और खीझ में बचा हुआ गन्ना वही गली में गुस्से में फेंक दिया और अखबार धीरे से कुरते की थैली में रख लिया .
घर आकर दलान में पड़ी खटिया पर धम्म से पड़ गया. दो घंटे पहले जितना खुश होकर घर से भागा था, उतना ही उदास होकर लौट आया था. पर हाँ,उस कहावत की तरह नहीं कि लौट के बुद्धू घर को आए. थोड़ी देर सिर पर हाथ रख कर सोचता रहा और एक हाथ से बरामदे की मिट्टी खोदता रहा. अभी बाहर से दीदी आयी, मुझे देखकर बोली- तुम कहाँ, चले गये थे. बाबू जी आये थे. पूछ रहे थे. मैं पूरा टोला खोज कर आ रही हूँ. कुछ बोलते क्यों नहीं, क्या हुआ ? मैं जब कुछ नहीं बोला तो दीदी अम्मा – अम्मा पुकारते हुए घर में चली गयी. और फिर अम्मा हाथ में सूप लिये बाहर आयी. मुझे खटिया पर बैठकर मिट्टी को खोदते देखकर बोली- पता है सब कितने परेसान हैं. तुमको खोजने के लिए गीता को भेजी थी और ई क्या कर रहे हो बाबू ? माटी खोद रहे हो. अभी कल ही गोबर से लिपाई की हूँ. मैंने तुरंत मिट्टी खोदना बंद कर दिया और टनकर बैठ गया.अम्मा फिर बोली- तुम्हें पुकारती रह गई. कहाँ भाग गए थे ? तुम्हारे बाबू जी खेत से आए थे. पूछ रहे थे. गेहूँ सींच रहे हैं. खेत पर बुलाये हैं. आते हुए जाओ दाना रस भी लेते जाओ. फरूहा [ फावड़ा ] ले जाना भूल गये थे. वही लेने आये थे. रुके नहीं फरूहा लेकर तुरंत चले गए. मैंने कहा- बाबूजी और कुछ नहीं बोले न. अम्मा बोली- नहीं, मैं डरते हुए बोला- क्यों, अपने कुर्ता की थैली नहीं टोए ना. अम्मा हँस कर बोली- अच्छा, तो तुम अख़बार लेकर भागे थे. उसी में ले जाकर रख दो. पता चल गया तो... फिर क्या, मेरी उदासी तुरंत झटपट भाग गयी. मैं दौड़कर मड़ई में गया और बाबूजी के पीले कुर्ते के नीचे वाली बाई वाली थैली रखकर दौड़ा वापस अम्मा के पास आया और धम्म से आकर बैठ गया. अम्मा बोली- दूध भात ऐसे ही छोड़कर भाग गए थे. खाओगे, मैंने कहा- नहीं, मन नहीं है. अम्मा फिर बोली- अच्छा चाय बना दूँ, चाय रोटी खा लो, मेरे बालों में उंगली करते हुए बोली. मैंने कहा- चाय रोटी भी नहीं अम्मा. आलू पूरी बना दो. अम्मा बोली- ठीक है, बना दूँगी. अब जाओ, बाबूजी जी को दाना रस दे आओ, दीदी को बोल दो.वो दे देगी. भुखा गए होंगे. मैंने कहा- ठीक है अम्मा. पर ई बताओ, बाबूजी को ई हमार कबिता वाला अखबार कइसे मिल गया. अम्मा जो बताई तो अम्मा की आँख भर आयी और फिर अम्मा को देखकर हमार भी आँख भर आयी. अब सुनिए, अम्मा क्या बोली....
कल तुम्हारे बाबू खाद लेकर जब संझा को बजार से आए तो सबसे पहले साइकिल खड़ा करके गाय को चारा डालने चले गये. तभी चन्दरपुर वाले बाबू साहब आये और हाँक दिए. अरे वो तिवारी बाबा....तिवारी बाबा करते आए. तुम्हारे बाबूजी संझा को ठाकुर साहब को अपने दुआर आया देखकर थोड़ी दुविधा में पड़ गये. इतनी सांझ को आने का क्या कारण है? अंधेरा होने लगा था. आवाज सुनकर तुम्हरे बाबू जी बोले- आइये बाबू साहब, गाय को चरादाल के आ रहा हूँ. बाबू साहब बोले- ठीक है महराज. आराम से कम कर लीजिये. बाबू जी गाय को चारा डाल के जल्दी से आग जलाए तख्ता बाहर निकाले और पानी लाने के लिए मुझे आवाज दिए. बाबू साहब सबसे पहले तुम्हारा ही नाम पूछे, तिवारी बाबा पंकज आप के ही लड़के का नाम है. तुम्हरे बाबूजी असमंजस में पड़ गए. उन्हें लगा तुमने कोई बड़ी बदमाशी कर दी है. शायद उसी की शिकायत होगी. फिर भी तुम्हारे बाबूजी सही - सही बता दिए. हाँ, हमारे बड़े लड़के का नाम है. क्या बात है ? कुछ गलती हो गयी क्या ? बाबू साहब साहब हँसते हुए बोले- अरे नहीं तिवारी बाबा, अरे बाबा ई तो खुशी की बात है कि पंकज आपका बेटा है. आज मैं चौराहे गया था. अपनी मधुमेह की दवा लेने. मीठा तो सख्त मना है, पर जाड़ा में गरमा गरम पकौड़ी से देख रहा नहीं गया, फिर भाई शिवसिंह मिल गये और मिठाईलाल की दुकान पर फिर चाय पकौड़ी की महफिल जम गयी. जिस अखबार के टुकड़े पर मिठाईलाल का बेटा पकौड़ी दिया था जैसे ही पहली पकौड़ी उठाया. तो देखा पंकज चिंतामणि तिवारी और आप के गांव का नाम लिखा था. ध्यान से देखा तो कविता थी. बालरंग वाला पृष्ठ था दैनिक जनतंत्र का. मुझे पूरा विश्वास हो गया कि आप के बेटे की कविता है. मैंने तुरंत मिठाईलाल से दूसरा अखबार मंगवाया. पकौड़ी दूसरे अखबार पर रखा. धनिया की चटनी वाला हिस्सा फाड़ कर फेंक दिया. अच्छा हुआ कि जितनी दूर कविता छपी थी उतनी देर पकौड़ी रखी थी. एक हफ्ता पुराना अखबार था. वह तो अच्छा हुआ मेरी नजर पड़ गयी. मुझे थोड़ा अचरज हुआ कि आपने कभी बताया नहीं आप का बेटा इतनी छोटी उम्र में कविता लिखता है. तुम्हारे बाबू कुछ बोले नहीं. इतना कह कर बाबू साहब ने अपनी जेब से अखबार का टुकड़ा निकाल कर तुम्हारे बाबूजी को थमाया. इतने में मैं पानी लेकर पहुँची तो तुम्हारे बाबूजी तुरंत बोले- पंकज की अम्मा पंकज कहाँ है ? मैं बोली- कहीं घूम रहे होंगे बच्चो के साथ. स्कूल से आये बस्ता रखे और बिना कुछ खाये पिये ही आज खेलने चले गये. तब तुम्हरे बाबू बोले- अच्छा, जरा लालटेन लेकर आओ. मैं बिना कुछ कहे बरामदे में आयी और कुंडी में लटकी लालटेन को उतारकर तुम्हारे बाबूजी के पास ले जाकर धीरे से तख्ते पर रख दी. बत्ती मद्धम थी सो कुंजी ऐंठकर थोड़ी बत्ती बढ़ा दी. ताकि उजियार थोड़ा और बढ़ जाय. मैं वहीं खड़ी हो गयी क्योंकि कल रसोई तुम्हरी दीदी देख रही थी. तुम्हरे बाबूजी अखबार लालटेन के एकदम पास ले जाकर बड़ी देर तक निहारते रहे. मुझे तो कुछ समझ में आता नहीं. पर तुम्हरे बाबू जी मन ही मन में पढ़ लिए. मैं पहली बार तुम्हरे बाबूजी के आंख से आंसू गिरते देखी. मैं तो बस तुम्हरी फोटू पहचान पायी. मेरी भी आँख खुशी से भर आयी. बाबू साहब हमें भावुक होते देख बोले- तिवारी बाबा, रात हो रही है, अब हम चलेंगे. तुम्हरे बाबू बोले- चाय बनवाऊँ. बाबू साहब बोले नहीं, अंधेरा हो गया है. भैंस खूँटे पर पड़ी - पड़ी तुड़ा रही होगी. बेटा रिश्तेदारी में गया है. इसलिए आज मुझे ही देखना है. दूध दुहना भी बाकी है. अच्छा, पालागी. इतना कहकर बाबू साहब चले गए.
बाबू साहब के जाने के बाद तुम्हरे बाबूजी बताये, पंकज की कविता अखबार में फोटो के साथ छपी है. उसमें पंकज ने अपना नाम मेरे नाम के साथ लिखा है. गांव का भी नाम लिखा है. तुम्हरे बाबूजी और क्या बोले मालूम है ! मैंने नहीं में सर हिलाया तो अम्मा ने बोलना जारी रखा. तुम्हरे बाबू बोले- पंकज की अम्मा, लोग कहते थे तो मुझे विश्वास नहीं होता था कि कविता, कहानी लिखता है. कई लोगों से इधर-उधर सुना भी था कि कल का लड़का है क्या जाने कविता, कहानी . पर आज मुझे विश्वास हो गया, हमारे पंकज में भी कुछ प्रतिभा है. अब गांव वाले बाकी लोग जो भी कहें, प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं. किसी के बेटवा की अभी तक फोटो अखबार में नहीं आयी. जिनकी आती भी है चोरी, बेईमानी, कुर्की में आती है. तुम्हरे बाबू की बात सुनकर मेरी आंख भर आयी. तुम्हरे बाबू बोले- हम जान गये, बेटवा में हमारे दम है. पर ई गांव वालों को कौन समझाए ? हम जानते थे, कुछ तो लिखता है पर मैं गांव वालों के मजाक उड़ाने के डर से किसी से कहता नहीं था. पर हमारे हाथ में बड़ा पुरूफ़ मिल गया है. तुम्हारे बाबूजी को हमको भी तुम्हारे ऊपर बहुत अभिमान है बबुआ, यह कहकर अम्मा ने माथा चूम लिया. मेरी भी खुशी का ठिकाना ना रहा. मैंने अम्मा से कहा- देखना अम्मा, एक दिन बहुत बड़ा लेखक बनूँगा, कवी भी बनूँगा और तुम्हारा बहुत नाम करूँगा. अब जल्दी से दाना रस दे दो. बाबू जी को बहुत जोर से भूख लग गयी होगी. हाँ, तो यह मेरी पहली कविता की कहानी और हाँ, थोड़ी सी बाकी रह गई है. बाकी वाली भी जल्दी- जल्दी बता देता हूँ. जाइयेगा मत ! बाकी वाली यह है कि मैंने 4 महीने पहले अखबार का बालरंग वाला पन्ना गांव के परधान के घर पड़ा था और उसमें पूरा पन्ना कविता ही छपी थी. उसमें एक कोने में बड़े अक्षर में लिखा था. आप भी अपनी कविता हमें भेज सकते हैं – पता है----
सो कविता भेजने वाला पता हाथ पर लिख लिया था. घर आकर कापी पे उतार लिया था और एक महीने बाद जब अंतरदेसी भर को पैसा जुट गया तब एक दिन पाठशाला में दोपहर को खाने की छुट्टी में भागकर डाकखाने गया और अंतरदेशी खरीद कर लाया. रात को पढ़ते समय चुपके से उसमें कविता लिखकर चावल के मांड से चिपकाकर अगले दिन चुपके से जाकर गांव के पोस्ट बक्सा में डाल दिया था. फिर छपने के बाद पता भी नहीं चला क्योंकि किसी के घर तब अखबार नहीं आता था. चौराहे पर जा नहीं सकते थे बिना किसी बहुत जरूरी काम के. परधान के यहाँ भी कभी – कभी ही आता था. वह तो भाग्य अच्छा था कि पकौड़ी बाबू साहब को उसी अखबार के उसी पन्ने पर परोसी गयी. जिसमें मेरी कविता छपी थी. धन्यवाद बाबू साहब को, धन्यवाद आप सब पाठकों को, जो यहाँ तक मतलब पूरी बात पढ़ने के लिए. नहीं तो कैसे आप मेरी पहली कविता की कहानी जान पाते. पाठकों बारह 12 वर्ष की उम्र में पहली कविता की कहानी जैसी थी, वैसी बिना लाग लपेट अर्थात बिना विशेष शिल्प और कथ्य के आप के सामने एक बारह वर्ष के बालक की मनःस्थिति की तरह परोसकर आत्मासंतोष हो रहा है. आप को कैसा लगा बताइएगा. अगर आप का मन करें. ढेर धन्यवाद !

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