मंगलवार, 6 दिसंबर 2016

किताबें

          

                    नज़्म


सोचता हूं अब लोगों के हाथों में किताबें नहीं दिखती

पर सच यह भी है कि मेरे हाथों में भी किताबें नहीं दिखती

 कुछ दोस्तों के हाथों में कभी-कभी दिखती थीं किताबें

 पर मेरे हाथों में तो रोज रहती थी किताबें

 जो रिश्ता था रुहानी सा किताबों से,किताबी हो गया

 थी दोस्ती जिसकी  किताबों से रोज की

 अब वह मुसाफिर हो गया


 कल जब मैंने खोली दराज तो कानों में गूँजी किताबों की

 सिसकियां

और जब छूकर देखा  तो हर पन्ने पर थे जख्म के निशान

किताब के जिस चेहरे पर अक्सर घूमती थी मेरी अंगुलियां

 जिनको ने भर दी थी वहां हजारों दर्द की कहानियां

 जिन्हें मैं कभी-कभी आधा-अधूरा 
पढ़ कर रख देता था तकिए के नीचे

अब जब लोग मोबाईल और टैब पर घुमाते हैं उंगलियाँ

ऐसे में उन किताबों को,

उन याद के लिए मुड़े पन्नों  को कौन सींचे

अब किताबें हो गई हैं उन बुजुर्गों की तरह

जिनसे हर कोई कतरा कर बढ़ जाना चाहता है आगे

नई तकनीक के जमानें में इन किताबों के पीछे कौन भागे

जैसे बड़े–बुजुर्गों के पास घड़ी–दो–घड़ी

बैठने का संस्कार ख़त्म होता जा रहा है  

कुछ वैसा ही किताबों से मिलने-मिलाने

का सिलसिला टूटता जा रहा है

किताबें भी एक संस्कार हैं

संस्कार भी नष्ट हो रहे हैं ऐसे में

किताबों को नष्ट होने से कौन बचाएगा

अगर हमें बनना है आदमी से मनुष्य


तो बचाना होगा किताबो को क्योंकि 

किताबें देती हैं मनुष्य बनने का संस्कार 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें