रविवार, 23 नवंबर 2025

कैसे कहूं अम्मा की याद नहीं आती



अम्मा राजा बाबू बेटा कहकर खिलाती

कैसे कहूं अम्मा  की  याद नहीं आती ?

 

गर्मी  में  आंचल  का   पंखा  बनाती

जाड़े  में  आंचल  से हमको छुपाती

छुटपन में आंचल से ढँककर सुलाती

आंचल से ढँककर ही दुधवा पिलाती

कैसे कहूं अम्मा  की  याद नहीं आती ?

 

आँचल से मुँह पोंछ काजल लगाती

कटोरे में दूध भात रखकर खिलाती

रोता तो थपकी  दे  हमको सुलाती

हमको तो ताज़ा वो खुद बासी खाती

कैसे कहूं अम्मा की याद नहीं आती ?

 

बाहर को निकलूँ तो दही गुड़ खिलाती

नज़र  न लगे  काला  टीका  लगाती

आंचल से  पैसा खोल हमको  थमाती

दुर्गा माई रक्षा  करें  कहके बुदबुदाती

कैसे कहूं अम्मा  की  याद नहीं आती

 

बेटा  तो   सोना  है   सबको   बताती

कोई  आता  हमरा ही गुणगान गाती

जाने कैसे बाबू  होंगे बड़ी याद आती

कहते कहते अम्मा की आँख भर आती

कैसे कहूं अम्मा  की  याद नहीं आती ?

 

 

शाम होते चौखट पे करती दिया बाती

बाहर  जो आती  तो  घूँघट में आती

सारे लोग खा लेते  बचा  खुचा खाती

रोज रात  बाबू जी  के पैर वो दबाती

कैसे कहूं अम्मा  की  याद नहीं आती

 

 

जाकर भी अम्मा कभी हैं नहीं जाती

थोड़ा थोड़ा अम्मा सभी में बस जाती

पहला शब्द जीवन का अम्मा सिखाती

अले लेले बाबू  सोना  कहके दुलराती

उनके ही रक्त से बनी है अपनी काठी

 

अम्मा राजा बाबू बेटा कहकर खिलाती

कैसे कहूं अम्मा  की  याद नहीं आती ?

 

  

      

   

 

 


मंगलवार, 18 नवंबर 2025

ज्यादातर की ज़िंदगी


 


पुस्तकों को करीने से सजा के जो रखता था

वही अब ज़िन्दगी में तिनकों जैसा बिखरा है

आपसी संबंधों को ज़मा करके जो रखता था

आज वही हर जगह से पूरा - पूरा उखड़ा है

 

जो अक्सर लोगों को, दिलों को जोड़ता था

उसी  का  दिल  आज  टुकड़ा – टुकड़ा है

जो बातों से उदास चेहरों पर लाता था मुस्कान

उसी  का  चेहरा  आज उतरा - उतरा है

 

जो सबको जोडकर महफ़िलें सजाता था

आज उसी  पर  सबसे  ज्यादा पहरा है

जिसे वह खुद से अधिक प्रेम करता था

उसने ही उसे दिया घाव सबसे गहरा है

 

जो दूसरों के लिए दौड़ता रहता था दिन रात

आज उसके दुःख में कोई नहीं ठहरा है

जो लोगों में भरता रहता था सतत उत्साह

आज उसका ही दिल दुःख से भरा कमरा है

 

ज्यादातर की ज़िन्दगी में ज़िन्दगी ऐसी ही है

आँखों में काजल  नहीं  बहता हुआ कजरा है  

 

पवन तिवारी

१८/११/२०२५

        


शुक्रवार, 7 नवंबर 2025

स्वार्थ ने धृतराष्ट्र को अंधा किया



स्वार्थ ने धृतराष्ट्र को अंधा किया

नाम को इतिहास   में गंदा किया

स्वार्थ का वो क्रम है बढ़ता जा रहा

लोगों  ने  संबंध  को  धंधा किया

 

सब लगे हैं अपनी बंदर बाँट में

आ गये  संबंध  सो  सब हाट में

चाह डल्ल्फ़ बेड की है आराम की

कौन  सोयेगा   पुरानी  खाट में

 

मेज  कुर्सी  पर  पढ़े जो ठाट में

बाप  तो  उनके  पढ़े  थे टाट में

जीभें लपकें चाउमीनों की तरफ

है कहाँ वैसा  मजा  अब चाट में

 

पापा की अब डांट बंधती गाँठ में

क्या मज़े  थे  बाबू जी की डांट में

पुत्र कुछ ज्यादा ही पिसते जा रहे

भार्या और माँ  के  दुर्गम  पाट में  

 

काल  ने  भी  चाल  ऐसी  है चली

बंद  संबंधों  की  होती  हर  गली

पुष्प खिलने की प्रतीक्षा अब कहाँ

मसल देते लोग अब कच्ची कली

 

पवन तिवारी

७/११/२०२५