बुधवार, 28 सितंबर 2016

बचपन

  गर्मी का महीना था .तेज धूप थी.हवा [गर्म लू के थपेड़े] तेजी से हर-हराती सी आवाज़ करती हुई चल रही थी .मैं भरी दोपहर में एक हाथ में डंडा लिए खिड़की के रास्ते बाहर कूदा और बाग़ की दिशा में चल पड़ा.बाग़ में पहुँच कर देखा तो मेरे साथी पहले से ही टिकोरे [कच्चे आम ] तोड़ने की कोशिश में लगे थे.एक साथ कई झटहे [ डंडे ] लड़कों के हाथों से छूटते और आम के पेड़ के अनेक अंगों पर चोट करते और फिर नीचे आ गिरते. उनके साथ कुछ टिकोरे, कुछ पत्तियां कभी – कभी नई कोमल छोटी टहनियाँ भी घायल हो पेड़ से बिछड़कर न चाहते हुए भी धरती से आ मिलती.पर लड़के उनके दुःख से बेपरवाह और उत्साह के साथ टिकोरे तोड़ने में व्यस्त थे.कई बार आम की टहनियों को तोड़ कर उसी से टिकोरे या आम तोड़े जाते.आम की टहनियां विभीषण का काम करती, पर वे मजबूर थीं.
दोस्तों का उत्साह देखकर मैं भी टिकोरे तोड़ने के कार्य में संलग्न हो गया. थोड़ी ही देर में सामूहिक प्रयास का उत्तम परिणाम सामने था.टिकोरे का ढेर लग गया था.पर्याप्त मात्र में हमारे पास टिकोरा हो गया था.इतनी मेहनत पक्के आम तोड़ने के लिए नहीं करनी पड़ती.क्योंकि कच्चे आम कई बार झटहे लगने पर भी नहीं टूटते,पर पके आम से जरा भी झटहे का मिलाप या स्पर्श हो जाय तो बुद से पेड़ का साथ त्याग कर घरती से आ मिलते हैं.कई बार इस उत्साह में पके आम बेचारे घायल भी हो जाते हैं.कईयों के पेट भी फट जाते हैं और अन्दर का पीला गूदा बाहर आकर झांकने लगता है और कभी – कभी ज्यादा उम्र [ज्यादा पकने के कारण] होने के कारण घरती पर गिरते वक्त खुद को संभाल नहीं पाते, तो अंतड़ियाँ भी बाहर आ जाती हैं.पर लड़के पोंछ कर उन्हें भी बड़े चाव से हजम कर जाते हैं.हम चार दोस्त थे,जल्दी – जल्दी आम सुतुही से [ धोंघे से बनी छिलनी ] छीला.उसमें पिसा हुआ नमक,मिर्च और लहसुन मिलाये और छिकुला तैयार हो गया.चारो दोस्त छक कर खाए.मिर्ची की मात्रा ज्यादा हो जाने के कारण सबकी आखों से गंगा – जमुना बहने लगी थी.सब सी-सी कर रहे थे,पर उस सी-सी में भी एक मजा था.उसके बाद सब एक साथ सीसियाते हुए, डबडबाई और छलकती आखों के साथ किशुन चाचा के नल पर झुककर अन्जुली लगाकर भरपूर पानी पिए. तीखे के चक्कर में इतना पानी पी लिए कि पेट में पानी के हिलोरे मारने का एहसास हमें हो रहा था.हम पानी पीकर खुस थे.तीखा छिकुला खाने के बाद पानी पीने का जो मज़ा आया उसका बखान करना मुश्किल हैं.हम वापस बाग़ की तरफ बढ़े कि तभी वहाँ रिंकू और डबलू भी आ गये. उन्होंने हमें लखनी खेलने का प्रस्ताव दिया. [ पेड़ की इस डाल से उस डाल पर छोने का खेल ] मुझे छोड़ सब तैयार हो गये.क्योंकि मेरे पेट में पानी का इतना वजन बढ़ गया था कि मेरा दौड़ पाना मुश्किल था और मैं बार – बार पकड़ा जाता. खेल शुरू हुआ और मैं बिना नियुक्ति के ही धूल भरी धरती पर बैठकर पञ्च की भूमिका निभाने लगा.थोड़ी ही देर में मैं पञ्च स्वीकृत भी हो गया. जब डबलू ने मुझसे कहा – पंकज तुम बताओ मैं डंडा छूकर पेड़ पर चढ़ा था कि नहीं ? मैंने तुरन्त डबलू के पक्ष में फैसला सुनाया और बिना किसी विवाद के मेरा फैसला मान लिया गया. कुछ देर खेल चलने के बाद मेरा भी मन खेलने को मचला. मैंने दोस्तों को आवाज़ दी. सबने एक स्वर में कहा- ये भी कोई पूछने की बात है.फिर क्या...? पूरी ताक़त के साथ पतले वाले आम के पेड़ की तरफ दौड़ लगा दी. ताकि महेश के डंडा लेकर लौटने से पहले मैं पेड़ की किसी सुरक्षित टहनी पर विराजमान हो जाऊं. पेड़ का तना पतला होने के कारण मेरी बाजुओं में समा गया. फलस्वरूप मैं अपने लक्ष्य में कामयाब रहा. लखनी के खेल में बड़ा मजा आ रहा था कि अचानक कान में बां – बां की आवाज़ आयी. इसके साथ ही मुझे याद आया कि मुझे गाय चराने जाना है.तेजी से पेड़ से सरसराते हुए उतरा.इस चक्कर में हल्का सा सीना छिल गया.नीचे उतरने पर जब चारो तरफ आँख घुमाई,तो एहसास हुआ कि सूर्य नारायण का तेज कम हो गया है.शाम की ओर समय बढ़ रहा है.घर की तरफ कदम बढ़ाते हुए मैंने जोर से चिल्लाने की आवाज़ में दोस्तों से कहा - मैं घर जा रहा हूँ. मुझे गाय छोड़नी है.देर हो गयी है.घर की दिशा में दौड़ना शुरू किया.इसके साथ ही मन में विचार भी दौड़ रहा था कि, सबके जानवर चरने के लिए छूट गये होंगे.सिर्फ मेरी गाय अभी तक खूंटे से बंधी होगी और खूंटे के चारो ओर खूंटा तुड़ाने के चक्कर में चक्कर काटते हुए बां- बां कर रही होगी.इन विचारों के साथ मैंने दौड़ना शुरू कर दिया.अब मैं बाग़ पार कर गाँव के सिवान पर आ गया था. मैंने अपनी रफ्तार कम कर दी या यूँ कहिये कि रुक सा गया मुझें हाँफा आ रहा था. मेरी रफ़्तार तो थम गयी थी, पर सांसों की रफ्तार मेलगाड़ी हो गयी थी. मैंने एक मिनट के करीब दम लिया और फिर मेरे घर की ओर जाने वाली गली की तरफ मुड़ा. गली में प्रवेश करते ही मेरी नज़र गली के अंतिम छोर पर पड़ी. मेरी आखों ने देखा कि आख़िरी छोर के थोड़ा आगे मेरी चाची चिल्ला रही थी. मेरे कदम चाची की तरफ लपके. अब जब मेरी आखों ने पूरा दृश्य देखा तो, मुझे अन्दर तक हिला दिया. भैंस क्रूरता के साथ मेरी चाची पर अपनी सींगों से प्रहार कर रही थी और चाची हमारी मातृभाषा अवधी में क्रंदन कर रही थी ... अरे केहू बचावा... मरकहिया भैंसिया मार नावति है.अरे बपई हो बपई... कोई दूर – दूर तक मेरी आखों को नज़र नहीं आ रहा था.मेरे तो होश उड़ गये.पैर से सिर तक डर ने हिला दिया.पैर कांपने लगे थे.मैं चकर – मकर देखने लगा, क्या करूँ, के भाव के साथ ? तभी इस चकर-मकर के प्रयास में मेरी आँख सामने पड़े बांस से जा टकराई. दिमाग में बिजली कौंधी और दिमाग में बड़ा वाला बल्ब जल पड़ा. मैं बांस की तरफ भागा.तब तक भैंस चाची को एक बार और झटक चुकी थी.भैंस के झटकने से चाची पास की खाट पर जा गिरी.इससे पहले कि भैंस अगला प्रहार करे.मैंने हिम्मत बटोर कर,आगे बढ़कर भैंस के जबड़े पर जी–जान से प्रहार किया.भैंस तिलमिला गई.अब उसने लक्ष्य बदल दिया.अब उसका रुख मेरी तरफ था.ऐसे में मेरे पास ‘जान हथेली पर’ के साथ मुक़ाबला करने के सिवा कोई विकल्प नहीं था.मर जाओ या मार दो के निश्चय के साथ मैं भैंस के नथुने और जबड़े व आस–पास बांस बरसाने लगा. भैंस मार खाते हुए भी आत्मरक्षा में सिर झुकाए मेरी ओर पल-पल बढ़ रही थी. अब वः मेरे बेहद करीब थी.ऐसे में मैंने पूरी शक्ति के साथ आख़िरी प्रहार किया और मैंने अपनी आखें बंद कर ली.इसके साथ ही बांस मेरे हाथ से छूटकर खर्र की आवाज़ के साथ दूर जा गिरा.मैंने जब आँख खोली तो पीठ के बल धरती पर धराशायी था और भैंस आखों से ओझल थी.शायद भैंस मेरी दी हुई आख़िरी चोट से बौखलाकर भाग गयी थी.फिर मेरी आखों ने अचरज के साथ चकर-मकर किया.मेरे अन्दर उछल रहे सीने को थोड़ा सुकून मिला मैं ज़िंदा बच गया था.अब मुझे आभास होने लगा था.अब मुझे अपनी जीत न देख पाने का दुःख भी हो रहा था.काश उसे हारकर भागते समय मेरी आखें मैंने खोली होती.तो कुछ और ही मज़ा आता.थोड़ी चेतना बढ़ी तो चाची का ध्यान आया.चाची बेचारी खटिया पर पड़ी कराहने के साथ छोटे मासूम बालक की तरह सुबक भी रही थी.मैं अपने कपड़ों में लिपटी मिट्टी को झाड़ते हुए उठ खड़ा हुआ और चाची की तरफ पग बढ़ा दिया.मेरी मासूम आखों ने चाची के फूटे घुटने देखे.उंगली भी घायल हो गयी थी.खून बह रहा था.माथे पर भी उस जगह चोट लगी थी.जो वर्षो से बिंदी के लिए आरक्षित थी.इस समय बिंदी का कुछ पता नहीं था.मेरी चाची उदित होते सूर्य की तरह गोल और बड़ी बिंदी लगाती थी.उनकी बिंदी आकर्षण का केंद्र थी.एकाध बार मेरे मन में आया था कि पूछू कि चाची इतनी बड़ी बिंदी क्यों लगाती हो,पर हिम्मत नहीं हुई.
मैंने डरते हुए चाची की बाँह पकड़ी और खटिया पर सीधे लिटाने का कुछ सफल,कुछ असफल प्रयास किया. इस प्रयास से मालूम हुआ कि मेरी चाची सचमुच भारी हैं.इसके बाद मैं पड़ोस की दुबाइन चाची के घर दौड़ते हुए गया. उस समय वो सूप से गेहूं फटक रही थी.मैं हांफते हुए बोला- चाची – चाची जल्दी चलो,रिंकू की अम्मा को मरकहिया भंइस ने मार दिया है.इतना सुनते ही दुबाइन चाची सूप छोड़ सिर पर पल्लू चढ़ाते हुए मेरे साथ चल पडी.खटिया पर कराहते हुए चाची को देख दुबाइन चाची ने अपना हाथ अपने सिर पर रख लिया अर्थात घोर अनर्थ हुआ.आश्चर्यजनक,एक क्षण के लिए दुबाइन चाची अवाक हो गयी.फिर पश्चाताप के भाव से सहानुभूति जताते हुए बोली – हे भगवान् ये सब कैसे हुआ?गीली आखों और कांपते शब्दों ने उदगार किया – ये सब मत पूछो कैसे हुआ?अच्छा हुआ कि यह बच्चा समय पर देवता बनकर आ गया.वर्ना आज मेरा अंतिम दिन होता.मैं कब से रिंकू के बाऊजी को बोल रही थी.ये भैंस बेच दो.पर वे मेरी एक नहीं सुनते.लो अब भोगें.अब खुद ही खाना बनायें.अब देखती हूँ गरम रोटी कैसे खाते हैं?कहते हैं खाना बनाना कौन सा बड़ा काम है?अब पता चलेगा.जब बाप-पूत मिलकर चूल्हा फूंकेंगे. इन शब्दों के साथ ही चाची की जुबान लटपटाई और बेहोश हो गयी.मैं डर कर घर की तरफ भागा.खिड़की खुली थी.सो धीरे से चोर वाली मुद्रा में अपने ही घर में घुसा.बाऊजी मुझे खोजकर थक चुके थे.इसलिए मुझे खोजने के लिए उन्होंने रामू को भेजा था.मैं अनाज वाली कोठारी था कि तभी बाऊ जी की आवाज़ सुनाई पड़ी.वह बोलते हुए अन्दर आ रहे थे – पंकज’वा [ मेरा नाम ] पता नहीं कहाँ घूमने चला गया.दोपहर से ही गायब है.सोनू सब जगह खोजकर आ गयी.कहीं पता नहीं चला.न जाने कहाँ चला गया. गाय खूंटे पर चिल्ला रही है.छूटने का समय हो गया.सबके जानवर छूट गये हैं.गाय रस्सी तुड़ा रही है.अगला वाक्य गरियाते हुए बोले – आने दो हरामखोर को.बहुत आवार हो गया है.पढ़ना-लिखना एक अक्षर नहीं,और न ही कोई काम करता है.न ही घर पर रहता है.एक यही गाय चराता था.अब इससे भी छुट्टी कर ली.आँगन में बैठी अम्मा पर नजर पड़ी तो शिकायती लहजे में बोले – तुम तो बोलती ही नहीं.
बाऊजी की इस गुस्से भरी आवाज़ को सुनकर मैं डर गया और मैं डेहरी [ अनाज रखने का मिट्टी का बड़ा बर्तन ] के पीछे कोने में छिप गया.बाऊ जी बोलते जा रहे थे- अच्छा अब मैं बाज़ार जा रहा हूँ. थोड़ा चना दे दो. बेचकर तरकारी लेते आऊंगा.आज एक रुपया भी जेब में नहीं है, और हाँ, – पंकज आये तो बोल देना, गाय छोड़ दे.अम्मा ने कोई जवाब नहीं दिया.बाऊ जी फिर बोले – अच्छा एक काम करता हूँ.गाय को खरी डाल देता हूँ.थोड़ी देर बझी रहेगी.बोलते-बोलते बाऊ जी खरी लेने घर में आये तो उनकी नज़र कोने में बैठे मुझ पर पड़ी.देखते ही तपाक से बोले –अरे यहाँ क्या कर रहा है? कब से सब तुझे खोज रहे हैं.एक चक्कर पूरा गाँव सोनू खोज आई.उसके बाद रामू को खोजने के लिए भेजा हूँ और तूं यहाँ छुपा है.कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं करके आया है.उन्होंने कान पकड़ा. फिर मैंने धीरे से कहा - नहीं. कान पकड़कर उठाते हुए बोले – गाय चराने नहीं जाना है. अभी भी मेरा एक कान बाऊजी के हाथों की मजबूत पकड़ में था.वे मुझे कान पकड़कर आँगन, दालान का पर्यटन कराते हुए बरामदे तक लाये.फिर उन्होंने मुझे कुछ ऐसे सम्मानसूचक शब्द से संबोधित किया, बाहर चल हरामखोर,काम चोर हो गया है,काम चोर कहाँ गया था? बोल, बोलता क्यों नहीं?दूध तो कटोरा भर कर चाहिए.फिर गाय कौन चरायेगा?, मैं, आवारों की तरह घूमने से पेट भरेगा.आज से फिर जाएगा ? बोल! परन्तु मैं कुछ न बोला.सोंचा अगर आज न कह दूंगा, तो भी कल फिर घूमने जाऊँगा.दिल तो मानेगा नहीं.सो झूठ बोल के क्या फायदा? इसलिए मैं चुप ही रहा.जब मैंने बाऊ जी के अनुरूप उत्तर नहीं दिया. तो उन्होंने वही किया जो वे अपने अनुरूप उत्तर नहीं पाने पर करते हैं.उन्होंने फटाफट ३-४ कान के क्षेत्र में बजा दिया.उसी दौरान अम्मा झोले में चना लेकर आ गई. मेरी इज्जत की बेइज्जती होते देख अम्मा बोली – अब जाने भी दो.आप तो जब देखो बस पीटना शुरू कर देते हो. अम्मा का इतना कहना था कि बाऊजी जी के क्रोध ने मुझे तत्क्षण बख्स कर अम्मा की ओर रूख किया.बाऊजी के क्रोध ने मेरी आड़ लेकर अम्मा पर जोरदार हमला किया. औरत की जात बहुत खराब होती है.बाबू-बाबू करके सिर पर चढ़ा दी हो.कल यही जब आवारा,नकारा निकल जाएगा.तब नहीं बोलोगी .. आज तो मैं इसको छोड़ देता हूँ.आज के बाद फालतू घूमने गया तो मार के हाथ पैर तोड़ दूंगा और तुम भी नहीं बचोगी.फिर मेरी तरफ घूरकर देखते हुए बोले – मैं बाज़ार जा रहा हूँ.गाय छोड़ देना.आने के बाद अगर पता चला कि आज गाय चरने के लिए नहीं छूटी तो तुम्हारी खैर नहीं.’
 इतनी धमकी देकर बाऊजी चने का झोला अम्मा के हाथ से छीनने के अंदाज़ में लेकर साइकिल की तरफ बढ़े.बाऊजी को साईकिल आखिरकार बाज़ार लेकर चली गई. अम्मा अन्दर रसोई की ओर बढ़ चली.पीछे – पीछे मैं भी चल पड़ा.पेट कुछ बोल रहा था,पर मैं ठीक से उसकी भाषा नहीं समझ सका. बाऊ जी के तमाचे की गर्मी थोड़ी कम होने पर लगा,शायद पेट भूख की बात कह रहा था.इस बीच बाऊजी के अंतर्ध्यान होने के उपरान्त अम्मा की जुबान खुली – ‘इतना मार खाते हो,फिर भी नहीं मानते. तुम्हारी वजह से चार बात मुझे सुननी पड़ती है.मार खाते हो तुम और तकलीफ़ मुझे होती है.’‘तुम्हे तकलीफ़ होती है! मार तो मैं खाता हूँ न. तुमको क्या ?तुम तो खड़ी होकर देखती रहती हो.’ छोटी उम्र की मासूमियत वाली भाषा छलक पड़ी थी.अम्मा बोली- तो क्या करूँ?बीच में आकर मैं भी मार खाऊं.पंकज के मासूम मन में मासूम सा सवाल उठा.जिसे अम्मा की ओर उछाल दिया – ‘अम्मा तुम बाऊ जी से डरती हो.’अम्मा का दिमाग सवाल सुनकर अचानक लड़खड़ाते – लड़खड़ाते सम्भला.फिर झूठी अकड़ के साथ अम्मा का संक्षिप्त स्वर फूटा- नहीं तो. फिर पंकज का छोटा संवाद- नहीं तो क्या ? इस छोटे से वाक्य ने अम्मा के दिमाग को गुस्सा दिला दिया.गुस्से ने अम्मा को झिड़कने का अंदाज दिया.तो क्या?ज्यादा बात मत कर. आज कल तूं बहुत बोलने लगा है.चल खाना खा और गाय छोड़ दे.इतनी देर तक कहाँ गायब था? अचानक मेरे दिमाग में चाची की याद आयी. मेरा दिमाग हिलने लगा.मैं बोला अम्मा एक बात कहूँ. अम्मा ने आज्ञा वाले अंदाज में कहा – कोई बात नहीं,चुपचाप खाना खाओ और गाय छोड़ दो. मेरा पेट खाने के मूड में था और दिमाग अम्मा से चाची वाली बात कहने की जल्दबाजी में था.मेरे हाथ और मुंह ने मिलकर तेजी से दाल भात और आलू के चोखे को पेट के गोदाम में पहुंचा दिया.अब चाची वाली बात उगलने की जल्दी थी. सो मैंने उगल दी.अम्मा मैंने आज चाची को मरकहिया भैंस से बचाया. भैंस चाची को मार रही थी.मैंने उसे बाँस से मार कर भगा दिया.बाद में चाची मर गयी.इसलिए मैं भाग आया. अम्मा ने भी दुबाइन चाची की तरह सिर पर हाथ रख लिया और वही बोली जो दुबाइन चाची ने बोला था. हे भगवान् ! तूं सच कह रहा है.मैंने अपनी बात की सत्यता के लिए बीच में विद्या माँ को घुसा दिया. ''विद्या माई की कसम'' अम्मा सही कह रहा हूँ.अब फिर अम्मा ने दुबाइन चाची की तरह साड़ी का पल्लू सिर पर चढ़ाया और तेज कदमों से बाहर की तरफ निकली. अम्मा के पीछे मैं भी हो लिया.
रिंकू के घर पहुँच कर देखा तो वहाँ भीड़ लगी थी.दो औरतें चाची को बेना [पंखा] झल रही थी.चाची कराह रही थी. अम्मा भीड़ को चीर कर चाची की खाट के पास पहुँची. अम्मा की उंगली पकड़े मैं भी पहुँचा.अम्मा चाची से बोली – जीजी, चाची का ध्यान अम्मा पर आया. इससे पहले कि अम्मा आगे बोलती.अम्मा को देखते ही चाची बोली – अरे पंकज की अम्मा, आज मुझे तुम्हारे बेटे ने बचा लिया. भगवान् ,देवी माई, संकर भगवान लम्बी उमर दें.इतना आसिरवाद सुनते ही अम्मा ने मेरा हाथ पकड़कर अपने आगे कर दिया.मुझे देखते ही चाची की आखें पुनः भर आयी.उन्होंने अपने कांपते हाथ को बड़े स्नेह से मेरे सिर पर फेरने की कोशिश करते हुए बोली – जुग-जुग जियो बेटवा. भगवान तुम्हें अज्जर-अम्मर [अजर-अमर] रखें.यही दुबाइन बहिनी को भी बुलाकर लाया.उसके बाद मैं बेहोस हो गयी.जब होस आया तो ये हुजूम देखा. पर पंकज नहीं था. तुम्हार बेटवा जान पर खेल कर हमके बचाया. कौन आशीरवाद देई.अम्मा बोली- जीजी मुझे जैसे पंकज ने बताया आप को भैंस ने मार दिया.मेरा कलेजा मुंह को आ गया.तुरंत भागी – भागी आयी.जीजी आप के आराम की जरूरत है. आप आराम करा.आप जल्दी ठीक हो जायेंगी. भगवान् सब ठीक कर देंगे.बाद में आती हूँ जीजी. इतना कहकर,अम्मा मेरा हाथ कसके पकड़कर भीड़ से बाहर निकल आयी. रास्ते भर अम्मा कुछ नहीं बोली घर आकर बरामदे में अम्मा खटिया पर बैठ गयी और मेरा सिर अपने आँचल में रख कर सहलाने लगी.रह-रह कर अम्मा थपकी भी देती.इस बीच मेरे गाल पर पानी की कुछ गर्म बूँदें गिरी. तब मैंने अम्मा के चहरे की तरफ देखा. अम्मा की आखों से बरसात हो रही थी.अम्मा के हाथ मेरे बदन पर फूल की तरह टहल रहे थे.वह हाथ आशीष,स्नेह और ममता की गर्मी से डूबा था.अम्मा की उस स्नेहिल थपकी से मैं बेहद खुस हो गया और सोंचने लगा ‘न मातु पर दैवतम’ माँ से बढ़कर परम देवता कोई नहीं है.माँ ही वह ईश्वरीय उपहार है,जिसे स्वर्ग के खो जाने पर ईश्वर ने मनुष्य को उसके क्षतिपूर्ति के लिए दिया है.अम्मा मेरे उस काम से खुस थी. मैं अपने आप को मन ही मन शाबाशी दे रहा था.मुझे खुसी थी कि आज मैंने एक अच्छा काम किया.अब अम्मा के इस स्नेह के बाद मुझे बाऊजी की मार का कोई मलाल न था.एक घंटा दिन रह गया था.अम्मा ने कहा जाने दो. एक घंटे के लिए गाय क्या छोड़ोगे?मैंने कहा नहीं अम्मा मैं गाय छोडूंगा.कम से कम गाय एक घंटा तो चरेगी. अपना गुल्ली-डंडा लेकर गाय के साथ मैदानों की ओर चल दिया. खुशनुमा मूड में गुनगुनाते हुए.                          

रविवार, 25 सितंबर 2016

नेता तो अब देश में नीलकंठ पक्षी हो गये हैं ....


आज – कल एक शब्द जो सबसे ज्यादा चर्चा और प्रयोग में रहता है वो नेता है. वो भी गलत कारणों से. समाचार पत्रों,व्यंग चित्रों,मंचीय कवियों की कविताओं में और आम जनता की जुबान पर गाली की तरह अक्सर प्रयोग होते रहता है.नेता शब्द अब आम जन जीवन में नकारात्मकता के परिपेक्ष्य में मुहावरे का काम करता है जैसे – सुना है आज-कल नेता बन रहे हो. तुम तो नेता लग रहे हो , मुझसे नेता गिरी मत दिखाना,तो अब तुम भी नेता बनने चले हो, तो आखिर तुम भी नेता ही निकले, बस अब नेता बनना ही बाकी रह गया था, मेरे ही साथ नेतागिरी, ये नेतागिरी कहीं और दिखाना, ऐसे वाक्य अक्सर सामान्य लोगों के बीच सुनने को मिल जाता है. एक वाक्य और नेता से सम्बंधित  जो मैंने अपने सामने एकव्यक्ति द्वारा अपने  परिचित व्यक्ति को कहते सुना और फिर उसकी प्रतिक्रिया भी सुना वो आप के समक्ष रखना चाहता हूँ. एक व्यक्ति ने दूसरे को सामने देखते ही कहा -और नेता जी, इतना सुनना था कि सामने वाले ने लरजती भाषा में कहा- इस तरह क्यों गली दे रहे हो भाई .इससे अच्छा दो जूते मार देते. मैंने ऐसा क्या गुनाह कर दिया जो आप मुझे इस तरह की गाली दे रहे हो , कुछ और कह लेते. खैर मैंने ये बात ‘’नेता’’ शब्द के प्रति वर्तमान धारणा के परिपेक्ष्य में कही है. जबकि नेता का वास्तविक अर्थ बहुत ही पवित्र और गर्व से भर देने वाला है. किन्तु यदि आज नेता धब्द के प्रति ऐसी धारणा बनी है तो अवश्य इसका कोई ठोस और बड़ा कारण होगा.
  पिछले ५ दशकों से निरंतर नेताओं के चरित्र और जीवन शैली में अप्रत्याशित गिरावट जारी है.लोगो में इस बीच ये धारणा कब स्थापित हो गयी कि नेता का अर्थ,भ्रष्टाचारी,धोखेबाज,गुण्डा,चरित्रहीन,लुटेरा होता है. ठीक – ठीक कोई तारीख नहीं बता सकते. पर पिछले 2 दशकों में ही ये धारणा पूरी तरह स्थापित हुई है. ऐसा मेरा व्यक्तिगत मानना है. और फिर नेताओं पर इस तरह के मुहावरे चलन में आये, अन्यथा नेताओं के दिए नारे चलन में थे जैसे - तुम मुझे खून दो ,मैं तुम्हे आजादी दूंगा, इन्कलाब ज़िंदा बाद,  जय जवान – जय किसान आदि.
नेता अपने आप में हिन्दी का अद्भुत और पराक्रमी शब्द है.मुझे तो इस शब्द पर गर्व है. क्योंकि इसकी व्याख्या के लिए एक ग्रन्थ की रचना भी कम पड़ जायेगी. यह बहुउपयोगी शब्द है और अलग-अलग काल एवं परिस्थिति में अलग –अलग अर्थ सहजता से धारण कर लेता है. नेता का सहज और सही अर्थ होता है ‘अगुआ’. उत्तरप्रदेश में विवाह के सन्दर्भ में अगुआ का शब्द का सर्वाधिक प्रयोग होता था, अब भी होता है पर अब कम हो गया है. अगुआ जो बिना स्वार्थ आगे बढ़कर दो अपरिचित परिवारों में परिचय कराये. जिस पर दोनों पक्षों का विश्वास हो और दोनों परिवारों में रिश्तेदारी कायम करवाए, इस बीच कुछ उलझे तो सुलझाये, बिना किसी स्वार्थ के. अच्छा रिश्ता चल पड़ा तो अगुआ कौन किसी को याद नहीं ? सारा श्रेय खुद को अर्पित और यदि कुछ ठीक नहीं हुआ तो सारा दोष अगुआ का.दोनों पक्षों के तिरस्कार और ह्रदयवेधी बाण अगुआ को सहना पड़ता है. शिव की तरह मलाई दूसरों ने  खाई और विष शिव के हिस्से में आया. बिना किसी गुनाह के.तो ऐसा व्यक्ति अगुआ या नेता होता है.दूसरे शब्दों में अगुआ अर्थात नेतृत्व करने वाला, सबसे आगे चलने वाला सेनापति.नेतृत्व का गुण होना या नेतृत्व करना कोई साधारण कार्य नहीं है. बेहद दुरूह है.
  नेतृत्व करना सबसे जोखिम का काम है.अगुआ समूह में सबसे आगे चलता है.इसलिए हानि का पहला अवसर उसे ही मिलता है या पहला हमला उसी पर होगा.उसमें अपने समूह या सेना या कार्यकर्ताओं को एकजुट रखने की जिम्मेदारी प्रतिपल होती है. उसे स्वयं में ये विश्वास बनाये रखना होता है कि मेरे लोगो को मुझमें विश्वास है. उसके साथ ही लोगो को ये विश्वास दिलाने की क्षमता बार –बार दिखनी होती है कि वह उनकी, उनके हितों व उनके अधिकारों की रक्षा करने में समर्थ है. संकट काल में उनके लिए अपना सर्वस्व और सर्व प्रथम बलिदान उनका अगुआ या सेनापति देगा. नेता समाज का भी हो सकता है .नेता किसी आन्दोलन का भी हो सकता है और नेता या सेनापति किसी फ़ौज का भी हो सकता है, किन्तु नेता की जिम्मेदारी वही होती है नेतृत्व करना. जिसमें उसे स्व का सब कुछ स्वाहा करने के लिए प्रतिपल तैयार रहना पड़ता है. ऐसा व्यक्ति ही नेता हो सकता है. अन्यथा वह कुछ भी हो सकता है किन्तु नेता नहीं हो सकता.
 ऐसे में आम जनता को नेता जैसे पवित्र शब्द का प्रयोग राजनीति में रहने वाले लोगों के लिए प्रयोग करना बंद कर देना चाहिए. इससे नेता शब्द का उसके सच्चे अर्थ का अपमान होता हैं. हमारे देश में नेता शब्द का प्रयोग आज तक सिर्फ एक ही व्यक्ति के लिए प्रयोग हुआ और वो थे पुण्यात्मा, भारत माता के तेजस्वी पुत्र सुभाषचंद्र बोस जी. उनके नाम के आगे नेता शब्द इस प्रकार जुडा कि दोनों एक दूसरे के पर्याय हो गये. आज की तारीख में उन्हें उनके वास्तविक नाम के बजाय नेता जी के आम से अधिक संबोधित किया जाता है. उनके नेतृत्व के गुणों को देखकर ही सिंगापूर में रासबिहारी बोस ने ४ जुलाई १९४३ को सुभाषचन्द्र को आज़ाद हिन्द फौज़ का सेनापति नियुक्त किया. उन्हें सबसे पहले एडोल्फ हिटलर ने नेता जी कहकर संबोधित किया था. उन्होंने ही दुनिया भर में बिखरे भारतीयों को एकजुट किया. उनमें अंग्रेजों से लड़ने और उन्हें हराने का जज्बा पैदा किया. फलस्वरूप आज़ाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों से न सिर्फ लड़ाई की बल्की अंग्रेजों को पूर्वोत्तर भारत में हराया भी. उन्होंने अपने लोगों के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया. तो ऐसा होता है नेता. आज नेता नीलकंठ पक्षी हो गया है.
 आज राजनीति एक शासन एवं व्यवसाय करने का सफल माध्यम है. राजनीति है क्या ? इसकी परिभाषा क्या है ? आइये जानते हैं ... किसी देश या राज्य पर शासन करने की विद्या का ज्ञान ही राजनीति कहलाता है. ऐसे में इस ज्ञान या विद्या के द्वारा जनता पर शासन करने वाले राजनीतिज्ञ कहलाते हैं. ये शासक हैं. सेवक नहीं. ये वो लोग है जो हमारे हिस्से के संसाधनों पर पर मौज़ करते हैं और हमारा ही खून चूसते हैं.और हमीं से अपनी सुरक्षा और जय भी करवाते हैं. राजनीतिज्ञ आज राजनीतिज्ञता का का पेशेवर व्यवसाय कर रहे हैं. इससे अच्छा और मुनाफे का व्यवसाय विश्व में दूसरा नहीं है. इसमें शिक्षा की भी कोई बाध्यता नहीं है. जिन्होंने अपना बचपन और जवानी पढाई को समर्पित कर दिया. आईयेएस,आईपीएस,आईआरएस,आईएफएस बनने के बाद वे इन्हीं राजनीतिज्ञों की हाँ हुजूरी करते हैं.५ वर्षों में ही सत्ता में आने के बाद राजनीतिज्ञ का आर्थिक सूचकांक कई सौ गुना बढ़ जाता है. तमाम सरकारी सहायता, छूट, सुविधाएँ, अधिकार पैरों तले घिसटने लगती हैं. सलामी भी बेवजह मिलती है और अनैतिकता की नेपथ्य से स्वीकृति [लाइसेंस] भी मिल जाती है. किस पेशे में इतना फायदा और सुविधा है ? राजनीतिज्ञ तो आज हर कोई बनाने को बेताब है, पर कोई नेता नहीं बनना चाहता. काश कोई नेता बने या ईश्वर अथवा भारत माता कोई चमत्कार करें. भारत में कोई नेता [जी]  पैदा हो. जो इण्डिया को फिर से भारत बना सके. इस देश के लिए अपना सर्वस्व निछावर करने का मन लेकर आये. जयहिंद ,अस्तु      


                                

मंगलवार, 20 सितंबर 2016

हिन्दी साहित्य के सूर्य- रामधारी सिंह ''दिनकर''

दिनकर जी की वर्षगाँठ २३ सितम्बर पर विशेष लेख

आइये कुछ कविता की पंक्तियाँ पढ़ते हैं----
रे रोक युधिष्ठर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर पर फिरा हमें गांडीव गदा,
लौटा दे अर्जुन भीम वीर - (हिमालय से)
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,
उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो - (
कुरुक्षेत्र से)
मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान हस्तिनापुर आये, पांडव का संदेशा लाये। - (
रश्मिरथी से)
दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
                   हम वहीं खुशी से खायेंगे,
                   परिजन पर असि न उठायेंगे!
·         लेकिन संधि की कौन कहे,
दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
कुछ याद आया इन पंक्तियों को सुनकर..... ऐसे तेजस्वी स्वर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के सिवा भला किसका हो सकता है.  
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकरने हिंदी साहित्य में न सिर्फ वीर रस के काव्य को एक नयी ऊंचाई दी, बल्कि अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का भी सृजन किया.
इसकी एक मिसाल 70 के दशक में संपूर्ण क्रांति के दौर में मिलती है. दिल्ली के रामलीला मैदान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने हजारों लोगों के समक्ष दिनकर की पंक्ति - 
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है,

का उद्घोष करके तत्कालीन सरकार के खिलाफ विद्रोह का शंखनाद किया था.ऐसे महान साहित्य मनीषी के लेखन और व्यक्तित्व के बारे में कुछ और बातें जानें जैसे -दिनकर जी के वास्तविक  कवि जीवन का आरम्भ 1935 से हुआ, जब छायावाद के कुहरे को चीरती हुई 'रेणुका' प्रकाशित हुई तथा हिन्दी साहित्य की दुनिया एक बिल्कुल नई शैली, नये तेवर ,नई ऊर्जा, नई भाषा की नाद से भर उठा। उसके तीन वर्ष के अंतराल पर जब 'हुंकार' प्रकाशित हुई,तो देश के नौजवानों ने दिनकर जी और उनकी ओजमयी रचनाओं को कंठहार बना लिया।जनमानस के लिए दिनकर जी अब राष्ट्रीयता, विद्रोह और क्रांति के शिखर कवि थे।'कुरुक्षेत्र' दूसरे विश्वयुद्ध के समय की रचना है,किंतु उसकी मूल प्रेरणा युद्ध नहीं,देशभक्त युवाओं के हिंसा-अहिंसा के द्वंद से उपजी थी।
दिनकर जी के प्रथम तीन काव्य-संग्रह प्रमुख हैं– 'रेणुका' (1935 ई.), 'हुंकार' (1938 ई.) और 'रसवन्ती' (1939 ई.) उनके आरम्भिक आत्म मंथन के युग की रचनाएँ हैं। इनमें दिनकर का कवि अपने व्यक्ति परक, सौन्दर्यान्वेषी मन और सामाजिक चेतना से उत्तम बुद्धि के परस्पर संघर्ष का तटस्थ द्रष्टा नहीं, दोनों के बीच से कोई राह निकालने की चेष्टा में संलग्न साधक के रूप में मिलता है।
 उर्वशी के प्रकाशन  के साथ ही  हिन्दी साहित्य जगत में एक ओर उसकी कटु आलोचना और दूसरी ओर भूरि-भूरि प्रशंसा हुई। धीरे-धीरे स्थिति सामान्य हुई, इस काव्य-नाटक को दिनकर की 'कवि-प्रतिभा का चमत्कार' माना गया। कवि ने इस पौराणिक मिथक के माध्यम से देवता व मनुष्य, स्वर्ग व पृथ्वी, अप्सरा व लक्ष्मी और अध्यात्म के संबंधों का अद्भुत विश्लेषण किया है।
दिनकरजी ने अनेक प्रबन्ध काव्यों की रचना भी की है, जिनमें 'कुरुक्षेत्र' (1946 ई.), 'रश्मिरथी' (1952 ई.) तथा 'उर्वशी' (1961 ई.) प्रमुख हैं। 'कुरुक्षेत्र' में महाभारत के शान्ति पर्व के मूल कथानक का ढाँचा लेकर दिनकर ने युद्ध और शान्ति के विशद, गम्भीर और महत्त्वपूर्ण विषय पर अपने विचार भीष्म और युधिष्ठर के संलाप के रूप में प्रस्तुत किये हैं। दिनकर के काव्य में विचार तत्व इस तरह उभरकर सामने पहले कभी नहीं आया था। 'कुरुक्षेत्र' के बाद उनके नवीनतम काव्य 'उर्वशी' में फिर हमें विचार तत्व की प्रधानता मिलती है। साहसपूर्वक गांधीवादी अहिंसा की आलोचना करने वाले 'कुरुक्षेत्र' का हिन्दी जगत में यथेष्ट आदर हुआ। 'उर्वशी' जिसे कवि ने स्वयं 'कामाध्याय' की उपाधि प्रदान की है– ’दिनकरकी कविता को एक नये शिखर पर पहुँचा दिया है। भले ही सर्वोच्च शिखर न हो, दिनकर के कृतित्त्व की गिरिश्रेणी का एक सर्वथा नवीन शिखर तो है ही। दिनकर ने अनेक पुस्तकों का सम्पादन भी किया है, जिनमें 'अनुग्रह अभिनन्दन ग्रन्थ' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।दिनकर की शैली में प्रसादगुण यथेष्ट हैं, प्रवाह है, ओज है, अनुभूति की तीव्रता है, सच्ची संवेदना है। नका जीवन-दर्शन उनका अपना जीवन-दर्शन है, उनकी अपनी अनुभूति से अनुप्राणित, उनके अपने विवेक से अनुमोदित परिणामत: निरन्तर परिवर्तनशील है। दिनकर प्रगतिवादी, जनवादी, मानववादी आदि रहे हैं और आज भी हैं, पर 'रसवन्ती' की भूमिका में यह कहने में उन्हें संकोच नहीं हुआ कि "प्रगति शब्द में जो नया अर्थ ठूँसा गया है, उसके फलस्वरूप हल और फावड़े कविता का सर्वोच्च विषय सिद्ध किये जा रहे हैं और वातावरण ऐसा बनता जा रहा है कि जीवन की गहराइयों में उतरने वाले कवि सिर उठाकर नहीं चल सकें।"
बाल-काव्य विषयक उनकी दो पुस्तिकाएँ प्रकाशित हुई हैं —‘मिर्च का मजाऔर सूरज का ब्याहमिर्च का मजामें सात कविताएँ और सूरज का ब्याहमें नौ कविताएँ संकलित हैं। 'मिर्च का मजा' में एक मूर्ख क़ाबुलीवाले का वर्णन है, जो अपने जीवन में पहली बार मिर्च देखता है। मिर्च को वह कोई फल समझ जाता है-
सोचा, क्या अच्छे दाने हैं, खाने से बल होगा, 
यह ज़रूर इस मौसम का कोई मीठा फल होगा।
अलाउद्दीन ख़िलज़ी ने जब चित्तौड़ पर कब्ज़ा कर लिया, तब राणा अजय सिंह अपने भतीजे हम्मीर और बेटों को लेकर अरावली पहाड़ पर कैलवारा के क़िले में रहने लगे। राजा मुंज ने वहीं उनका अपमान किया था, जिसका बदला हम्मीर ने चुकाया। उस समय हम्मीर की उम्र सिर्फ़ ग्यारह साल की थी। आगे चलकर हम्मीर बहुत बड़ा योद्धा निकला और उसके हठ के बारे में यह कहावत चल पड़ी कि 'तिरिया तेल हमीर हठ चढ़ै न दूजी बार।इस रचना में दिनकर जी का ओजस्वी-तेजस्वी स्वरूप झलका है।  क्योंकि इस कविता की विषय-सामग्री उनकी रुचि के अनुरूप थी। बालक हम्मीर कविता राष्ट्रीय गौरव से परिपूर्ण रचना है। इस कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ पाठक के मन में गूँजती रहती हैं-
धन है तन का मैल, पसीने का जैसे हो पानी, 
एक आन को ही जीते हैं इज्जत के अभिमानी।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का दालान बिहार के बेगूसराय ज़िले में स्थित है। जीर्ण-शीर्ण हो चुका है यह दालान जीर्णोद्धार के लिए अब भी शासन-प्रशासन की राह देख रहा है। कुछेक वर्ष पहले इसके जीर्णोद्धार को लेकर सुगबुगाहट शुरू हुई थी, परंतु वह भी अब ठंडी पड़ चुकी है। ऐसे में यह 'धरोहर' कभी भी 'ज़मींदोज' हो सकती है। कहा जाता है दिनकर जी ने पठन --पाठन को लेकर बड़े ही शौक़ से यह दालान बनवाया था। वे पटना अथवा दिल्ली से जब भी गांव आते थे, तो इस जगह उनकी 'बैठकी' जमती थी। यहाँ पर वे अपनी रचनाएँ बाल सखा, सगे - संबंधी परिजन-पुरजन व ग्रामीणों को सुनाते थे। फुर्सत में लिखने-पठने का कार्य भी करते थे। वर्ष 2009-10 में मुख्यमंत्री विकास योजना से इसके जीर्णोद्धार के लिए पांच लाख रुपये आये, परंतु तकनीकी कारणों से वह वापस चले गए। युवा समीक्षक व राष्ट्रकवि दिनकर स्मृति विकास समिति, सिमरिया के सचिव मुचकुंद मोनू कहते हैं, उक्त दालान की उपेक्षा दुखी करता है। कहीं से भी तो पहल हो। अब तो यह नष्ट होने के कगार पर पहुंच चुका है। जबकि, जनकवि दीनानाथ सुमित्र का कहना है कि दिनकर जी का दालान राष्ट्र का दालान है। यह हिंदी का दालान है। उनके परिजनों को यह समाज-सरकार को सौंप देना चाहिए। उधर दिनकर जी के पुत्र केदार सिंह कहते हैं कि 'पिताजी ने हमारे चचेरे भाई आदित्य नारायण सिंह के विवाह के अवसर पर इसे बनाया था। इसके जीर्णोद्धार को लेकर पांच लाख रुपये आये थे, यह हमारी नोटिस में नहीं है। यह अब मेरे भतीजे अरविंद बाबू की देखरेख में है।'

4. चांद का कुर्ता

हठ कर बैठा चाँद एक दिन, माता से यह बोला,
‘‘
सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।

सनसन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूँ,
ठिठुर-ठिठुरकर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।

आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का,
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।’’

बच्चे की सुन बात कहा माता ने, ‘‘अरे सलोने!
कुशल करें भगवान, लगें मत तुझको जादू-टोने।

जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ,
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ।

कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा,
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा।

घटता-बढ़ता रोज किसी दिन ऐसा भी करता है,
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है।

अब तू ही ये बता, नाप तेरा किस रोज़ लिवाएँ,
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आए
?’’


लालमिर्च 

एक काबुली वाले की कहते हैं लोग कहानी,
लाल मिर्च को देख गया भर उसके मुँह में पानी।

सोचा, क्या अच्छे दाने हैं, खाने से बल होगा,
यह जरूर इस मौसम का कोई मीठा फल होगा।

एक चवन्नी फेंक और झोली अपनी फैलाकर,
कुंजड़िन से बोला बेचारा ज्यों-त्यों कुछ समझाकर!

‘‘
लाल-लाल पतली छीमी हो चीज अगर खाने की,
तो हमको दो तोल छीमियाँ फकत चार आने की।’’

‘‘
हाँ, यह तो सब खाते हैं’’-कुँजड़िन बेचारी बोली,
और सेर भर लाल मिर्च से भर दी उसकी झोली!

मगन हुआ काबुली, फली का सौदा सस्ता पाके,
लगा चबाने मिर्च बैठकर नदी-किनारे जाके!

मगर, मिर्च ने तुरत जीभ पर अपना जोर दिखाया,
मुँह सारा जल उठा और आँखों में पानी आया।

पर, काबुल का मर्द लाल छीमी से क्यों मुँह मोड़े?
खर्च हुआ जिस पर उसको क्यों बिना सधाए छोड़े?

आँख पोंछते, दाँत पीसते, रोते औ रिसियाते,
वह खाता ही रहा मिर्च की छीमी को सिसियाते!

इतने में आ गया उधर से कोई एक सिपाही,
बोला, ‘‘बेवकूफ! क्या खाकर यों कर रहा तबाही?’’

कहा काबुली ने-‘‘मैं हूँ आदमी न ऐसा-वैसा!
जा तू अपनी राह सिपाही, मैं खाता हूँ पैसा।’’

 शक्ति और क्षमा

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ, कब हारा?

क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।

अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।

क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।

तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।

उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।

सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।

सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।

सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।


समर शेष है कि आख़िरी दो पंक्तियाँ

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध 
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध.



·         राष्ट्रभाषा की समस्या पर राष्ट्रकवि दिनकर जी का हृदय बहुत चिंतित था।उन्होंने इस विषय पर दो पुस्तकें लिखी हैं। राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय एकतातथा राष्ट्रभाषा आंदोलन और गाँधीजी।दिनकरजी का कथन है कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा इसलिए माना गया कि केवल वही भारत की सांस्कृतिक एकता व राजनीतिक अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने में सक्षम थी. संस्कृति के चार अध्यायएक ऐसा विशद, गंभीर और खोजपूर्ण ग्रंथ है, जो दिनकरजी को महान दार्शनिक गद्यकार के रूप में प्रतिष्ठित करता है। अध्यात्म, प्रेम, धर्म, अहिंसा, दया, सहअस्तित्व आदि भारतीय संस्कृति के विशिष्ट गुण हैं। मित्रों,पाठकों चलते - चलते दिनकर जी के जन्म और उस पावन धरा के बारे में थोड़ी बातें कर लेते हैं- जैसा कि साहित्य प्रेमियों को पता है, फिर भी बताते चलते हैं हमारे नई पीढ़ी के पाठकों को,कि दिनकर जी बिहार के बेगूसराय जनपद के सिमरिया घाट २३सितम्बर१९०८ को पैदा हुए थे.संयोग देखिये कि आजादी के बाद जब हिन्दी भारत की राजभाषा बनी तो वो माह सितम्बर ही था.पूरा सितम्बर माह हिन्दी के आयोजनों कवि सम्मेलनों और उत्सवों से भरा रहता है.हिन्दी के सच्चे सपूत और नायक दिनकर जी के पिता बाबू रविसिंह जी किसान और माता मनरूप देवी गृहणी थी.
 दुर्भाग्यवश ..दिनकर जी जब दो वर्ष के थे तभी पिता का स्वर्गवास हो.ऐसे में शिक्षा – दीक्षा, भरण –पोषण आसान नही था. ऐसे में दिनकर जी  के परिवार की आर्थिक स्थिति इतनी ख़राब हो गयी कि जब वे मोकामा हाई स्कूल में पढ़ते थे, तब इनके पास पहनने के लिए जूते भी नहीं थे. छात्रावास की फीस भरने के लिए पैसे न होने के कारण वहां रुक नहीं सकते थे. इसलिए उनका स्कूल में पूरे पीरियड अटेंड करना संभव नहीं था. उनको लंच ब्रेक के बाद नाव से वापस गाँव जाना पड़ता था.  दिनकर जी ने स्नातक इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान में पटना विश्वविद्यालय से किया. दिनकर जी ने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन था. वे अल्लामा इकबाल और रवींद्रनाथ टैगोर को अपना प्रेरणा स्रोत मानते थे. 1934 से 1947 तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक रहे.
कुछ अन्य जानकारियां संक्षिप्त में
·         1950 से 1952 तक मुजफ्फरपुर कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष.
·         1952 से 1964 राज्यसभा का सदस्य.
·         1964-1965 कुलपति भागलपुर विश्वविद्यालय.
·         1965 से 1971 तक भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार.
.रश्मिरथी.
.परशुराम की प्रतीक्षा.
·         उर्वशी.
·         संस्कृति के चार अध्याय.
·         कुरुक्षेत्र.
·         रेणुका.
·         हुंकार.
·         हाहाकार.
·         चक्रव्यूह.
·         आत्मजयी.
  • वाजश्रवा के बहाने.
·         पद्म विभूषण 1959.
·         संस्कृति के चार अध्यायके लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार 1959.
·         भागलपुर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलाधिपति और बिहार के राज्यपाल जाकिर हुसैन, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने, ने उन्हें डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया.
·         1968 में राजस्थान विद्यापीठ ने उन्हें साहित्य-चूड़ामणि से सम्मानित.
·         उर्वशी को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार 1972.
  • कुरुक्षेत्रको विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74वाँ स्थान.
  • प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ काशी प्रसाद जायसवाल इनको पुत्र की तरह प्यार करते थे. उन्होंने इनके कवि बनने के शुरुवाती दौर में हर तरीके से मदद की. परन्तु उनका भी 1937 में निधन हो गया. जिसका इन्हें बहुत गहरा धक्का लगा. इन्होने संवेदना व्यक्त की थी कि, “जायसवाल जी जैसा इस दुनिया में कोई नहीं था.
  • रेणुका (1935) और हुंकार की कुछ रचनाऐं यहाँ-वहाँ प्रकाश में आईं और अग्रेज़ प्रशासकों को समझते देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं. चार वर्ष में बाईस बार उनका तबादला किया गया.
  • मशहूर कवि प्रेम जनमेजय के अनुसार दिनकर जी ने गुलाम भारत और आजाद भारत दोनों में अपनी कविताओं के जरिये क्रांतिकारी विचारों को विस्तार दिया. जनमेजय ने कहा, ‘‘आजादी के समय और चीन के हमले के समय दिनकर ने अपनी कविताओं के माध्यम से लोगों के बीच राष्ट्रीय चेतना को बढ़ाया.’’
 एक बार हरिवंश राय बच्चन जी ने कहा कि, “दिनकरजी को एक नहीं, बल्कि गद्य, पद्य, भाषा और हिन्दी-सेवा के लिये अलग-अलग चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने चाहिये.” 1999 में भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया.
२४ अप्रैल १९७४ को चेन्नई में देहावसान.