यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी
गुरुवार, 30 जून 2016
चवन्नी का मेला: निर्दयी और बदसूरत बारिश
चवन्नी का मेला: निर्दयी और बदसूरत बारिश: आप ने बारिश, बरसात, बर्षा की अनेक लुभावनी और सावन,मेघ–मल्हार,काले बादल, बरखा बहार,मौसम की फुहार जैसी श्रृंगार और प्रेम की कवितायेँ प...
निर्दयी और बदसूरत बारिश
आप ने बारिश, बरसात, बर्षा
की
अनेक लुभावनी और सावन,मेघ–मल्हार,काले
बादल,
बरखा बहार,मौसम की फुहार जैसी
श्रृंगार
और प्रेम की कवितायेँ पढ़ी
होगी,
सावन , बारिश, यौवन और
प्रसन्नता की सुन्दर रचनाएँ
देखी होंगी.
पर मैंने एक दूसरी बारिश को
देखा है
निर्दयी और बदसूरत...
क्या आप ने देखा है...
यदि नहीं तो आप बारिश को
ठीक से नहीं जानते
मैंने परसों सड़क के किनारे पत्थर
काटने वाली
औरत के घर निर्दयी बारिश को देखा
टाट की छत से उसके चूल्हे
और भात में
बेरहमी से टपकी नहीं, बरसी थी,
नीचे से भी जबरदस्ती घुस
आयी थी,
फटी चटाई और उस पर सोया
उसका दो साल का बेटा ,
दोनों को जबरदस्ती गीला कर
आई थी,
भात बिना पके खद्बदा कर मर
गया,
चूल्हे की आग कब चल बसी
किसी को ध्यान नहीं रहा
पूरी रात पत्थर काटने वाली
उस औरत ने
झोपड़े के कोने में दो साल के दूधमुहें बेटे को
लेकर
खुली आखों में टिप-टुप के डर के बीच पूरी रात
गुजार दी.
क्या आप पत्थर काटने वाली उस औरत के घर की
निर्दयी बारिश से मिले हैं
, अगर नहीं...
तो आप ठीक से बारिश को नहीं
जानते
आप ने कोठी की दालान में साहब
को भरी बरसात में
चाय की चुस्की और बरसात को
निहारते हुए कई बार देखा होगा
पर क्या सड़क के उस पार फटे
कपड़ों ,
गीले और सीलन से भरे झोपड़े
के द्वार पर कांपते
नौनिहालों से मिले हैं
जिनके फटे कपड़े के आख़िरी हिस्से से
जबरदस्ती बदरंग बारिश टपकती
है ,
अगर नहीं तो आप ठीक से
बारिश को नहीं जानते,
पगला काका को आप जानते हैं ?
पिछली गर्मी में किये थे घरभोज
धूमधाम से भुलई काका
बनवाये थे, नया मकान
बहू–बेटे सब सहर से घर आये
थे
एक दिन बड़े प्यार से आयी
बारिश
भुलई काका खुसी से गये सहर,
लाने धान का उन्नत बीज
अगले दिन लौटे सहर से गाँव
के लिए
पर अब वहां गाँव नहीं, दलदल
और कुछ निशान थे.
अब वहां अधनंगे धोती पहने
सिर्फ पगला काका घूमते हैं
अगर आप उस निर्दयी बारिश से
नहीं मिले...
तो आप बारिश को ठीक से नहीं
जानते ....
शनिवार, 25 जून 2016
‘’ भूख ने मरकर बदला लिया मुझसे...”
मेरे शुरुआती दिनों की, डेढ़ दशक पहले लिखी गई, मार्मिक कविता
एक शाम बागीचे में, उदास था
बैठा,
महसूस हुआ अचानक ! पेट का
खालीपन,
उस महसूसपन को, करना चाहा
नजरअंदाज
फिर भी पीठ से चिपके पेट को, आँख ने देख ही लिया,
एक हूक, एक मीठा सा दर्द
उठा,
मैं समझ गया, भूख है. सोचने
लगा ....
तभी भूख बोली,मुझे 3 दिनों से ढो रहे हो.
भरी जवानी में!ये मुझसे कैसा
बदला,
तुम जवान,मैं भी जवान
हाँ तुम्हें जवान होने में 18
साल लगे हैं,
पर मैं 8 घंटे में ही जवान
हो जाती हूँ.
हम दोनों की जरूरत है...
मैंने डांटा उसे, खूबजोर से
इतना कि उखड़ने लगीं मेरी
सांसे,
वह डरके दुबक गई,
शायद, आमाशय के किसी के किसी
कोने में
मैं पाकर शांति, खोजा सार्वजनिक
जल का नल,
मुफ्त में पिया, जीभर कर जल
2
एक दिन बाद भूख मुझसे बोली,
शायद बेवकूफ बनाने के नेक
इरादे से...
देखो मेरे लिए न सही,अपने
लिए ही सही
खाओ कुछ तो...
मजबूर सा था मैं...
बिन बुलाये मुफ्त में, आ
गया गुस्सा
उसे दीं मुफ्त में
गालियाँ...
निर्लज्ज , कमीनी,
स्वार्थी...
जब मुझे नहीं है खाने की चाह,
फिर तूं क्यों पड़ी है पीछे
मेरे,
भूख को भी आया गुस्सा, बोली-
जाओ मरो...और आया मुझे
चक्कर,
मामला बेहोशी पर जाकर पटा .
आस – पास की भीड़ ने पढ़े कई मन्त्र-तन्त्र
सुंघाए जूते, सुंघाए प्याज,
पढ़े मन्त्र,
मुँह पर मारे जल के छीटे,
हुआ मुक्त बेहोशी से, पुनः
आयी स्फूर्ति
महसूस हुआ, भूख की सलाह है
ठीक
उस रात खाया, एक समोसा बड़े जुगाड़
से
इसी तरह जिन्दा रखा ,
खुद को थोड़े – थोड़े जुगाड़
से,
भूख ने देख लिया था,
मेरी मजबूरियों की रसोई को
शायद, इसीलिये उसने साध ली
थी चुप्पी,
उसे आदत पड़ गयी थी ...
भूख घुट – घुट कर मर रही थी, अंदर ही अन्दर.
3
समय बदला , हालात बदले,
थोड़ी आसान हुई, रोटियों की
जुगाड़.
पर भूख थी नाराज, उसने
मुँह,जीभ और लार कों
न खाने,न पचाने की, दे रखी
थी कसम
जिन रोटियों के लिए मैनें
किये
कई वर्षों तक अनवरत युद्ध
अब वे मुझे पसंद नहीं करती.
एक दिन अचानक कार्यालय में,
हो गया बेहोश, अचानक!
घबराकर कर्मचारी ले गये,
आनन – फानन में अस्पताल...
चिकित्सक देखकर बोला –
इन्हें खिलाइए – भरपेट,ठीक
से खाना,
कमजोरी की शिकायत,कर्मचारी
हक्के-बक्के
दो दिन बाद,चिकित्सक ने
कहा-
मर गयी है आप की भूख,
उसे फिर जिन्दा करने के लिए
चिकित्सक ने दी कई दवाइयाँ,
मुझे याद आये वो अपने,
जवानी के शुरुआती दिन
जब मैंने सताया था,भूख को
हद से भी ज्यादा,
‘’ भूख ने मरकर बदला लिया मुझसे...”
शुक्रवार, 24 जून 2016
पेड़ा बाबा की कृपा
पेड़ा बाबा की कृपा
प्रिय पाठक मित्रों यह कहानी प्रसिद्ध पत्रिका कथन के अक्टूबर-दिसम्बर2008 के अंक में छपी थी . अब आप के लिए पुनः...
महंगाई...
मुद्रास्फीति...रुपए और डॉलर की कीमत में उतार चढ़ाव ...
औरों को पड़े तो
पड़ता रहे , दीपचंद को इस सब से कोई
फर्क नहीं पड़ता . व्यापार में, और खास तौर से
मुद्रा के व्यापार में , नफा - नुकसान तो
लगा रहता है. वह दूसरे होते हैं जो नफा होने पर इतराते फिरते हैं , और नुकसान होने पर रोते हैं. आत्महत्या तक कर
लेते हैं .दीप चंद्र के जीवन में भी ऐसे अवसर आए हैं . जिन्हे उनके गांव की भाषा
में ''कभी भी घना कभी मुट्ठी भर
चना'' कहा जाता था .लेकिन
दीपचंद न तो कभी इतराया ना कभी घबराया . इतनी बड़ी फाइनेंस कंपनी का मालिक है.
दुनिया भर में उस का कारोबार फैला हुआ है. लेकिन लाभ या हानि उसकी एक ही
प्रतिक्रिया होती है - वह हाथ जोड़कर ऊपर की तरफ देखता है, और श्रद्धा
पूर्वक बोलता है ''पेड़ा बाबा की कृपा''! पेड़ा बाबा कौन है ? कहां के हैं ?
कहां मिल सकते हैं ? दीपचंद किसी को नहीं बताता . लेकिन मन ही मन जब - तब स्वयं
उनका स्मरण अवश्य कर लेता है , और तब उसे याद
आता है अपना गांव , अपना घर और अपने बचपन का एक दिन...
वह घनघोर शीत का एक दिन था , सूर्योदय कब का हो चुका था , लेकिन सूर्य देवता का कहीं कोई अता - पता नहीं
था . कहीं कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था . टप - टप की आवाज रह-रहकर सुनाई दे रही थी
. काफी तेज कोहरा पड़ रहा था . चारों तरफ धुन्ध ही धुन्ध थी. पेड़ों के पत्तों पर जमी ओस की बूंदें टप -टप
की आवाज के साथ जमीन पर गिर रही थी . रजाई में मां के पास सोए हुए दीपू की आंख खुल
गई . कहीं से कूं - कूं की आवाज़ आ रही थी . वह रजाई से निकला , और थोड़ी देर तक चौखट पर अनमना सा खड़ा रहा .
अनुमान लगाने लगा कि आवाज किस तरफ से आ रही है . अचानक वह गांज की तरफ दौड़ पड़ा . उसके चेहरे पर चमक और होठों
पर एक कोमल मुस्कान छा गई . पुआल के पास पहुंचकर वह अपने मधुर किंतु तेज स्वर में
चिल्लाने लगा . ''अम्मा...
दीदी... यहां आओ , देखो कुत्तिया ने
ढेर सारे पिल्ले दिए हैं .'' वह खुशी से उछलने
लगा और अम्मा को आते देख ताली बजाने लगा . ताली की आवाज से कुत्तिया को अपने मासूम
बच्चों की सुरक्षा की चिंता हो आई और वह तेजी से भौंकी. दीपू की सिट्टी - पिट्टी गुम . सारा उछलना कूदना बंद . उसके चेहरे पर
हवाइयां उड़ने लगीं . वह वहां से भागना चाह रहा था , पर इतना डर गया
था , कि चाह कर भी भाग नहीं पा
रहा था . जड़वत खडा रहा . तभी पीछे से
अम्मा ने उसकी बांह पकड़ी .वह डरकर जोर से चिल्लाया . पीछे मुड़ा , तो अम्मा को देख उनकी साड़ी से लिपट कर जोर -
जोर से रोने लगा . अम्मा को समझते देर न लगी कि कुत्तिया भौंकी होगी . दांत दिखा
कर गुर्राई होगी . वह दीपू को पुचकारने लगीं . चुप हो जा , बेटा ,वह कांटेगा नहीं. मैं हूँ ना . अगर वह तुझ पर
भौंकेगी , तो मैं उसे मारुंगी . चुप
हो जा .'' अम्मा दीपू के आंसू
पोंछकर गोद में उठाने ही लगी थीं कि तभी दीपू की बड़ी बहन सोनी आ गई और
व्यंग्यपूर्वक बोली , ''यह देखो ! इनको
गोद में उठा रही हैं ! इतने बड़े हो गए !
क्या यह बरामदे तक पैदल नहीं चल सकते ? अभी तो दीदी - दीदी चिल्ला रहे थे . इतनी देर में क्या हो गया ? सारी बहादुरी गुम , क्यों बाबू ? सुबक क्यों रहे हो ?
''सोनी'' , बस !" अम्मा
ने झूठ -मूठ का गुस्सा करते हुए कहा ,
''मेरे बापू के खिलाफ जो एक
जबान बोली , गजब हो जाएगा .''
सोनी ने चिढ़कर
कहा, ''आ- ह - हा... यही एक राजा
बाबू हैं! हम लोग लड़की हैं न ! इसलिए हमें कोई नहीं पूछ रहा है !''
'' चलो - चलो ''
! बिना पूछ -परख के ही तुम इतनी बड़ी हो गयीं ?
जाओ , ज्यादा बतकही मत करो . आटा गूंथ दो . बाऊजी को कहीं जाना है . दो रोटी झट से
तैयार कर दो. '' अम्मा ने सोनी को
चलता किया और दीपू को लाड़ लड़ाते हुए , और सोनी से छोटी अपनी दूसरी बेटी मोनी को भी कोसते हुए कहा , ''जब देखो, दोनों बहने हाथ
धोकर मेरे बेटे के पीछे पड़ी रहती हैं!''
अम्मा ने दीपू को लाकर बरामदे में खाट पर
लिटा दिया और ऊपर से रजाई ओढ़ाते हुए कहा , '' रजाई से बाहर मत निकलना , बाहर बहुत ठंड है . नीम और बसवारी के पत्तों से ओस की
बूंदें पानी की तरह टपक रही हैं . बाहर मत निकलना . मोनी से चाय और पराठे यहीं
भिजवा दूंगी.''
दीपू ने ''हाँ '' में सिर हिलाया
और रजाई में दुबक गया .
दीपू गांव के ही
प्राइमरी स्कूल में पहली कक्षा में पढ़ता था . लेकिन स्कूल कभी- कभी ही जाता था .
दो बेटियों के बाद का एकलौता बेटा होने के कारण घर में उसका काफी मान था और उसी
मान के कारण वह काफी जिद्दी भी हो गया था .
थोड़ी ही देर में मोनी कटोरे में चाय और हाथ
में परांठे लेकर आई . दीपू के पास आकर देने लगी , तो दीपू ने हाथ में पराठे लेने से इंकार कर दिया और रोने
वाले अंदाज में जिद करने लगा , "मैं हाथ में पराठे नहीं लूंगा . मुझे थाली में पराठे चाहिए ... चाय में दूध भी
बहुत कम है ... मलाई भी नहीं है ..."
"लेना है तो सीधे ले लो . नहीं तो मैं लेकर वापस
चली जाऊँगी . जब देखो तब बहनों को तंग करते रहते हो .कभी चाय कम है , कभी परांठा अच्छा नहीं है , कभी दूध कम है . हमेशा तुम्हारे नखरे सहना मारे
बस का नहीं है. यह नखरे अम्मा को दिखाना .
तुम्हें सिर्फ अम्मा ही झेल सकती हैं." इतना कहकर वापस चली गई.
फिर क्या था ,
दीपू और जोर से रोने लगा . जब कोई पूछने नहीं
आया,तो गुस्से में आकर उसने रजाई हटाकर नीचे फेंक दी और पैर पटकने लगा . पैर खाट
की पाटी से टकरा गया .पैर में चोट लग गयी . दीपू और जोर से रोने लगा .
फिर भी कोई नहीं आया , तो वह खुद ही उठकर
लंगड़ाते हुए मडई में आया. रोते - रोते उसने कपड़े पहने .ऊपर से स्वेटर और कोट . सिर
पर ऊनी टोपी . तख़्त के नीचे से खोज कर जूते निकालें और सिसकते हुए
पहनने लगा .जूते पहनकर वह घर के बाहर
मुख्य सड़क पर आ गया . बाहर सचमुच ठंड थी .
उसने ठंड से कांपते हुए इधर - उधर नजर दौड़ाई और खेतों की ओर बढ़ चला .
नन्हे कदमों से
वह कुछ ही दूर बढ़ा था कि सामने से एक धुंधली आकृति उसे अपनी तरफ आती दिखाई पड़ी .
वह डरकर वही सड़क के किनारे ठिठक गया. आकृति जैसे-जैसे नजदीक आती जा रही थी , वैसे-
वैसे विशालकाय और भयानक होती जा रही थी. उसे देखकर दीपू की घबराहट बढ़ती जा रही थी
. विशालकाय आकृति अंततः सामने आकर खड़ी हो गई . आकृति से आवाज आई, “ दीपू , इतनी
ठंड में तुम यहां क्या कर रहे हो ?” दीपू पहचान गया . वह पड़ोस में रहने वाला पेड़
था. उसका असली नाम अविनाश था, पर उसके घर
के लोग प्यार से उसे पेडा कहते थे. इसी तरह कहते - कहते पूरा गांव ही उसे पेड़ा कहने
लगा था . उस समय पेड़ा पड़ोस के ठाकुरो के गांव से पुआल ला रहा था . उसके सिर पर
पुआल का बड़ा बोझ होने और खूब घना कोहरा छाया होने के कारण उसकी आकृति दूर से ही
बड़ी डरावनी लग रही थी . पेड़ा की उम्र 15 वर्ष के करीब रही होगी,जबकि दीपू तकरीबन 6 साल का था. दीपू ने जब आवाज से पहचान लिया कि यह पेड़ा ही है,
तब उसकी जान में जान आई. पेड़ा उसका सूखा चेहरा और गालों पर सूखे आंसुओं के निशान
देख कर समझ गया कि यह जरूर नाराज होकर इतनी ठंड में सड़क पर आया है. वह दीपू के मन
को टटोलते हुए बोला, “मेला देखने बाजार चलोगे, दीपू ?आज मैं और राजा बाबू मेला
जाने वाले हैं. वहां जाकर मोतीचूर के लड्डू खाएंगे. बंदूकें खरीदेंगे. मजा आएगा.”
पेड़ा
की बातें सुनकर दीपू के चहरे पर चमक आ गई. बालमन मेला घूमने की सुनकर आह्लादित हो उठा.लेकिन
अगले ही पल वह छुईमुई की तरह निराश होकर बोला, “मेरे पास तो पैसे नहीं हैं.” पेड़ा
ने कहा, “तुम्हारे पास नहीं है, तो क्या? तुम्हारे बाऊजी के पास तो होंगे ? उनके
कुर्ते में से निकाल लाना. सब कहते हैं तुम्हारे बाबूजी के पास कुछ पैसे हैं.
थोड़े पैसे निकालने से क्या हो जाएगा ? इतना कहकर पेड़ा आगे बढ़ते हुए बोला, चलना
हो तो, दोपहर को सरकारी ट्यूबेल पर मिलना . नियत समय पर तीनों मिले. पेड़ा, दीपू और राजा, जिसकी उम्र 12 वर्ष थी.पेड़ा ने दीपू से कहा,तुम्हारे पास कितने पैसे हैं ?
दीपू ने धीरे से कहा , एक रुपया . बाऊ जी की थैली में एक ही रुपया था .”दिखाओ”
पेड़ा ने कहा.
दीपू ने जेब से नोट निकालकर दिखा दिया . नोट
देखकर पेड़ा और राजा की आंखों में चमक आ गई. दीपू जिस नोट को एक रुपये का समझ रहा
था, वह वास्तव में सौ रूपये का नोट था पेड़ा और राजा को यह अच्छी तरह पता था.पर दीपू
अभी इतना समझदार नहीं था. वह उसे एक रुपया
ही समझ रहा था और उसके लिए एक रुपया ही बहुत था .
पेड़ा ललचाई
नजरों से नोट की तरफ देखते हुए बोला, दीपू तुम अपना एक रुपया मुझे दे दो. नहीं तो
तुमसे कहीं गिर जाएगा .दीपू ने धीरे से नोट पेड़ा की तरफ बढ़ा दिया. उधर घर पर
दीपू को न पाकर उसके पिता परेशान हो गए. इधर - उधर दीपू कहीं दिखाई नहीं पड़ा, तो
उन्होंने मोनी से पूछा मोनी दीपुआ कहां गया? मोनी ने कहा, मालूम नहीं, सुबह नाश्ता
देने गई, तो दुनियाभर के नखरे दिखाने लगा. उसने नाश्ता नहीं किया, तो मैं वापस लेकर,
लेजाकर रसोई में रख आयी. उसके बाद में गोबर पाथने चली गई थी. मुझे नहीं मालूम, गया
होगा कहीं घूमने ? बाबू जी बोले, उस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है. एक अक्षर पढ़ता-लिखता
नहीं है. दिन – ब - दिन बिगड़ता जा रहा है. लगता है, स्कूल भी नहीं गया. कल मैं
स्कूल गया था. उसकी कक्षा को पढ़ाने वाले मुंशी जी बता रहे थे कि उसका ध्यान पढ़ने
में कम, गोली खेलने और इमली बीनने में
ज्यादा रहता है.
तभी सामने से अम्मा आती दिखाई दीं. बाऊजी पुनः
बोले, “का मालकिन, तोहरे दुलरुआ बाबू कहां है ? अम्मा के हाथ में बड़ा वाला टोप था
और उसमें मटर की दाल थी. वह अपना एक हाथ खाली कर हाथ हिलाते हुए बोलीं, क्या वह
तुम्हारे दुलरुआ बाबू नहीं है? कहते हो, हमार बाबू है ! हमार बेटवा बहादुर है, शेर
है, डीएम् बनेगा, कलेक्टर बनेगा. रोज उसके लिए बिस्कुट
लाते हो. उसको सबसे पहले खड़ा [पूरा] सेब देते हो, और हमारी बेचारी बेटियों को टुक्का-टुक्का.
सो आप जानो आपका बेटा. मैं तो मटर दरने गई थी. 24 घंटे दीपू को पकड़कर थोड़े ही बैठे रहूंगी. एक तो छोटा सा
दिन, उस में दुनिया भर का काम. उस पर भी एक हफ्ते से घाम [धूप] नहीं हो रहा है. न
तो ठीक से कपड़े सूख रहे हैं, और न आग जलाने के लिए कोई सुखी लकड़ी या गोइंठा [सूखा
गोबर] मिल रहा है. सब शीत के मारे नरम पड़ गए हैं. चूल्हा जलाना मुहाल है. बेचारी
सोनी जैसी बिटिया है, कि जर - मरके बनाती है. नहीं तो भूखे माला जपते. तब पता चलता.
मैं तो उसे रजाई में सुला कर गई थी और मोनी को बोल दिया था उसे चाय पराठे दे दे.
बाजार में पहुंचकर पेड़ा ने सबसे पहले मोतीचूर के लड्डू खरीदे. तीनो ने मिलकर खूब
लड्डू खाए और जी भर कर पानी पिया. उसके बाद पहुंचे गुप्ता स्टोर पर. वहां से पटाखे
दागने वाले 3 बंदूकें खरीदी और
दागने के लिए तीन पैकेट पटाखे पटाखे भी.पटाखे दागते - दागते तीनों साथी आगे बढ़े कि
राजा की नजर चाट वाले ठेले पर पड़ी. जहाँ गरमागरम चारट बन रही थी.पेड़ा और राजा के
मुंह में पानी आ गया. दूसरे के पैसे पर मजा उड़ाना, वह भी मुफ्त में! ऐसा मौका सबको
और अक्सर कहां मिलता है ?सो राजा ने कहा, अरे यार उधर देखो, गरमा - गरम चाट बन रही
है. चलो, चाट खाएं. बिना चाट खाए बाजार का मजा क्या ? पेड़ा ने उसकी हां में हां
मिलाते हुए दीपू से पूछा, क्यों दीपू,चाट खाओगे न ?
दीपू ने “हाँ” वाली मुद्रा में सिर हिला दिया .
फिर क्या था . तीनों ने मिलकर चाट का मजा लिया . चाट में मिर्च ज्यादा थी .दीपू सी
- सी करने लगा.पेड़ा और राजा तो बर्दाश्त कर ले गये. पर दीपू की हालत खराब हो गई.
तब पेड़ा दीपू पर एहसान - सा करते हुए मिठाई की दुकान पर ले गया और वहां दीपू को
रसगुल्ला खिलाने के बहाने उन दोनों ने भी खाया. थोड़ा - थोड़ा चखने के नाम पर 2 - 3 मिठाईयां और खाई गयीं.
मिठाई खाकर दीपू को मिर्ची के तीखेपन से राहत मिली.
इसके
बाद तीनों साथी मौज करते हुए पैदल ही घर के लिए रवाना हुए.
सरकारी ट्यूबेल
पर आकर बचे हुए पैसों का बंटवारा हुआ. दीपू के सौ रुपयों में से पचास खर्च हो गए थे पचास बाकी बचे थे. उनमें से दस
पेड़ा ने स्वयं रख लिए और दस राजा को दे दिए शेष तीस रुपये [दस दस के तीन नोट] दीपू को पकड़ा कर पेड़ा ने कहा, “दीपू, तुम
सीधे सड़क से चले जाओ। हम और राजा बाहर- बाहर खेत के रास्ते से चले जाएंगे. किसी को
बताना मत कि हम लोग बाजार में मेला करने गए थे.
शाम के करीब 5:00
बजे होंगे, पर अभी से कोहरा घना हो गया था. घर
में सोनी और मोनी भोजन बनाने की तैयारी में लगी थीं. अम्मा कउड़ा [आग का ढेर] के
पास उसकी आग दहकाती बैठी थीं . तभी बाऊजी मडई में से बाहर निकलते हुए बोले, “कहो
मलकिन, हमरे कुरता में से पैसा निकाले हऊ का ?” अम्मा बोलीं, “नहीं तो, हम तो कुरता
को हाथ भी नहीं लगाये. कितना था?”
“सौ रुपये
.पंडित बाबा का सिंचाई का पैसा बाकी था. वही देने के लिए रखा था. पैसे के लिए
पंडित बाबा ने विद्याधर को भेजा था. तब मैं खेत में था. अभी आया तो सोचा, जाकर दे
आऊं. पर जब थैली में हाथ डाला, तो पैसा ही नहीं. तुमने नहीं लिया, तो फिर किसने
निकाला?’’
अम्मा ने वहीं बैठे - बैठे सोनी को आवाज दी, “ऐ
सोनी... सोनियारे... तनी बाहर आव तो, जल्दी आव।“
सोनी चूल्हे पर अदहन छोड़कर दौड़ती हुई बाहर आई. “का
है, अम्मा ?” अम्मा बोलीं, बाऊजी के थैले से तू पैसा निकाली है का ?’’
नहीं तो.
मैं कभी बाऊजी की थैली में हाथ डालती हूं क्या ? मुझे जरूरत होती है, तो मैं मांग
लेती हूं.”
फिर अम्मा ने मोनी को बुलाकर पूछा, “तूने तो पइसा
नहीं निकाला?’’
मोनी ने
बात कहने से पहले ही कंठ छूकर कसम खाई, “नाहीं
अम्मा, विद्या कसम! मैंने तो बाऊजी का कुरता छुआ भी नहीं. चाहे जिसकी कसम खिला लो.”
अम्मा घुड़ककर
बोलीं, ‘’कसम जाए बरसाईं में. सच - सच बता,
नहीं तो चमड़ी उधेड़ लूंगी, कुलच्छनी.”
इतना कहना था कि
मोनिका का रोना शुरु हो गया. आंखों के मोती वालों पर लुढ़क आए. बाऊजी बोले, रोओ मत,
बेटा ! हम तुम्हें मारेंगे नहीं, सिर्फ
पूछ रहे हैं. वो सिंचाई के लिए पैसा था न, बेटा!”
“हां, पर मैंने नहीं लिया. दीपू ने लिया हो तो
लिया हो, ...शायद इसीलिए दिन भर से गायब है.”
तभी
दीपू बाहर से आता दिखाई दिया. अम्मा ने कउड़े के पास बैठे - बैठे ही जोर से आवाज
दी, “ये दीपू ! इधर आओ बेटवा !”
दीपू चुप-चाप सिर झुकाए आ गया.
“एक बात पूछूं, सच - सच बताओगे ? बोलो, बताओगे न
?”
“हां...” दीपू ने कहा .
तभी बाऊजी बोले, “पहले यह बताओ, सुबह से कहां
गए थे ?”
अम्मा
बोलीं, “रुकिए जी, पहले मुझे पूछने दीजिए, ...ये दीपू, बताओ. तुमने बाऊजी के कुरते
में से पैसे निकाले थे ? देखो, एक दम सच - सच बताना, नहीं तो...
दीपू
समझ गया कि उसकी चोरी पकड़ी गई है, लेकिन वह झूठ बोल गया, “नहीं, मैंने पैसे नहीं
लिए.”
बाऊजी बोले, “ सच
बोल दो, अगर लिए हो. बेटा, कुछ नहीं कहूंगा. तुम्हारी अम्मा भी कुछ नहीं कहेंगी.”
लेकिन दीपू एक चुप हजार चुप.
अम्मा गुस्से में बोलीं , जाने दो , यहाँ सभी
शरीफ हैं . कोई चोर नहीं.लेकिन अगर पता चल गया
तो चोर की खैर नहीं . मार - मार कर हाथ पैर तोड़ दूंगी.
रात को खाना खिलाने के बाद अम्मा सबका बिस्तर
लगा रही थी कि अचानक दीपू के गद्दे के नीचे पटाखे वाली छोटी सी बंदूक और दस-दस के तीन नोट दिखे. अम्मा चक्कर में पड़ गयीं. कि ए तीस रूपये गद्दे के नीचे कैसे आए ? फिर सब से पूछताछ हुई. फिर किसी
ने कुछ नहीं बताया. अम्मा भुनभुनाते हुए द्वार पर फिर कउड़ा के पास जाकर बैठ गयीं.
मोनी सो चुकी थी .सोनी
दीया जलाकर मडई में पढ़ रही थी. दीपू को बाऊजी क ख ग घ लिखा रहे थे. अम्मा कउड़ा के
पास बैठी बड़बड़ा रही थी. “हे भगवान ! कहां गया पैसा? मुसीबत पे मुसीबत!”
तभी पड़ोस में रहने वाले जयकांत चाचा आ गए. आग
के पास बैठते हुए बोले, “भउजी, आज दीपुआ को शाम के करीब पेड़वा के साथ बाजार में
देखा था. उसके हाथ में पटाखा छोड़ने वाली बंदूक भी थी. मैंने सोचा, भइया के साथ
आया होगा. लेकिन भइया दिखे नहीं.”
इतना सुनना था कि
अम्मा बिना कुछ बोले सीधे मडई में गयीं और कुछ भी पूछे - ताछे बिना दीपू को दनादन तीन – चार घूँसे जमा दिए.
बाऊजी विस्मित होकर बोले, “यह क्या कर रही हो?’’
“क्या कर रही हूं?” अम्मा बोली, “जाओ, कउड़ा के
पास जयकांत बैठे हैं. खुद पूछ लो अपने सुपुत्र की करतूत ! पइसा इसी ने चुराया है.”
फिर अम्मा ने दीपू की बाँह झिंझोड़ते हुए पूछा, सच - सच बोल, नहीं तो रस्सी से बांधकर
बंडेर से लटका दूंगी.बोल, सौ रुपये का नोट चुराया था कि नहीं
?” दीपू ने रोते हुए बताया कि उसने सौ का नोट नहीं, एक रुपए वाला बड़ा नोट चुराया
था. जयकांत चाचा हंस दिए, “स्कूल जाने लगे हो, बाबू! तुमको एक रुपए और सौ रूपये के नोट का फर्क नहीं मालूम?”
दीपू को सचमुच एक
और सौ के नोट का फर्क मालूम नहीं था. उसने सुबह सड़क पर पेड़ा के मिलने से लेकर
मेला देखने जाने और लौट कर आने पर हुए पैसे के बंटवारे तक की पूरी कथा सुना दी.
“भइया, दीपू का दोष
नहीं है.” जयकांत चाचा ने बाऊजी से कहा, “यह तो कड़वा है, जो लड़कों को बिगाड़ रहा
है. उसकी खबर लेनी चाहिए.”
चोरी करने की सजा के रूप में दीपू को कान पकड़कर
उठक-बैठक करनी पड़ी. और विद्या माई की कसम खाकर कहना पड़ा कि अब वह कभी चोरी नहीं
करेगा.
उस दिन अम्मा, बाऊजी और जयकांत चाचा दीपू को जो
सबक सिखाना चाहते थे, वह तो उसे याद नहीं रहा, लेकिन पेड़ा का सिखाया सबक वह कभी
नहीं भूला कि दूसरे के पैसों पर मुफ्त में मौज कैसे की जाती है।
आज उसका फाइनेंस काइतना
बड़ा कारोबार पेड़ा सिखाए सबक के अनुसार ही चल रहा है.
इसीलिए वह कृतज्ञ होकर कहा करता है, “पेड़ा बाबा
की कृपा!”
इति शुभम